अपेक्षाओं के दबाव से जूझते शिक्षक शीर्षक से लिखे अपने आलेख में गिरीश्वर मिश्र ने अपने शिक्षकीय भावबोध से प्रेरित होकर आज की शिक्षा और उसकी धुरी माने जाने वाले शिक्षक की वर्तमान दिशा और दशा का जो आकलन किया है, उसे समझने की जरूरत है। स्वतंत्र भारत में राजनीति के चश्मे से देखी जाने वाली शिक्षा का शनैरू शनैरू क्षरण होना स्वाभाविक था, क्योंकि देश के शासनतंत्र ने शिक्षा के सुधार के लिए अनेक शिक्षा आयोग और समितियां गठित करने में जैसी तत्परता प्रदर्शित की, यदि उतनी ही सतर्कता से सर्वपल्ली राधाकृष्णन, लक्ष्मण स्वामी मुदलियार, डीएस कोठारी, कृष्णामूर्ति जैसे अनेक विद्वान शिक्षाविदों की संस्तुतियों को अपने राजनीतिक हानि-लाभ से परे होकर भारतीय शिक्षा के सुधार के लिए लागू कर दिया होता तो आज तस्वीर दूसरी होती। अब ‘बीती ताहि बिसार दे’ के शाश्वत सत्य को स्वीकार करते हुए 2019 में मोदी सरकार द्वारा लागू की जाने वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे देश की समूची शिक्षा व्यवस्था को राजनीति के चंगुल से बाहर निकालकर उसे स्वायत्तशासी बनाया जा सके। शिक्षा की स्वायत्तता से आशय उस अधिकार संपन्नता से है जिसमें देश के शिक्षाविद केवल सुझाव देने तक ही सीमित न रहें अपितु अपनी संस्तुतियों को देश की शिक्षा के हित में लागू करने में भी सक्षम हों। यह तभी संभव होगा जब भारत की शिक्षा न्यायपालिका और चुनाव आयोग की तरह स्वायत्तशासी होगी। देश के शासनतंत्र का उस पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं अपितु संविधान सम्मत अप्रत्यक्ष नियंत्रण होगा। अब इस तथ्य को भी स्वीकार करने की जरूरत है कि राष्ट्र की शिक्षा उसकी प्रगति की सूचक होती है तथा उससे जुड़े शिक्षक की राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके लिए देश की शिक्षा और शिक्षक की दशा एवं दिशा सुधारने के लिए शिक्षा को स्वायत्तशासी बनाने की जरूरत है। क्योंकि शिक्षा राष्ट्र के नव-निर्माण में नींव के पत्थर की भूमिका निभाती है।
डॉ. वीपी पाण्डेय, एसोसिएट प्रोफेसर, अलीगढ़
साभार जागरण
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