गुरु और शिष्य के बीच जो नाता है, उसे भारत में विशेष महत्व दिया जाता है। संत कबीर ने सारगर्भित रूप में कहा है, गुरु कुम्हार, शिष्य अपने शिष्य को चोट भी मारता है और उस चोट को सहने के लिए उसे सहारा भी देता है। इस अपूर्व संबंध का उत्सव मनाया जाता है आषाढ़ के महीने में। वह आषाढ़, जिसमें चांद दिखाई भी नहीं देता, पूरे समय वह बादलों से घिरा होता है। पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने के अनेक अर्थ हैं। गुरु पृथ्वी पर चांद का प्रतीक है।
इस काव्य दृष्टि का मर्म ओशो ने बहुत ही सुंदरता से बताया है। वह कहते है कि शिष्य अपने अंधेरे को लेकर आ गए हैं। वे अंधेरे बादल हैं। आषाढ़ का मौसम है और उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तब ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा गुरु की तरफ भी इशारा है। उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। ध्यान रहे, यह असली गुरुओं के बारे में कहा गया है, नकली गुरुओं के बारे में नहीं। असली गुरु तो बांस की पोंगसी जैसे होते है, भीतर से खाली। बांस तभी बांसुरी बनता है, जब वह भीतर से खाली हो।
असली गुरु जानता है कि उसके भीतर से ज्ञान, प्रेम और करुणा की जो रोशनी आ रही है, वह परमात्मा से आ विराट है। चांद के पास प्रकाश सीमित है, सिर्फ इस पृथ्वी तक आता है। लेकिन सूरज को देखने से आंखें चुंधिया जाएगी। कुछ दिखेगा हीं नही। चांद शीतल है, मधुर है। इसीलिए वह गुरु है।
अमृत साधना
साभार हिन्दुस्तान
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