भले ही हम सिद्धान्तों में गुरू के दर्जे को गोविंद से ऊपर मानते हो, लेकिन सच यही है कि अपने स्कूलों में हम गुरू को ठीक से गुरू भी नहीं मानते। अगर ऐसा ना होता, तो केन्द्रिय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, यानी सीबीएससी को यह निर्देश ना जारी करना पडता कि अध्यापकों से सिर्फ पढाने का काम लिया जाएं, कोई अन्य काम नहीं। बोर्ड ने यह निर्देश निजी स्कूलों के लिए जारी किया है, जहां यह समस्या सबसे ज्यादा है। सच तो यही है कि इन स्कूलों के अध्यापकों को पढाने के अलावा ढेर सारे दूसरे काम करने पडते है। क्लास टीचरांे को बच्चों की फीस जमा करने से लेकर उनकी छुट्टियों का हिसाब-किताब रखने तक के कई काम सौंप दिए जाते है। साथ ही उन्हें हर बच्चंें की ब्यौरे की फाइल भी बनाकर रखनी होती है। सुबह स्कूल शुरू होते ही वे बच्चों की वर्दी चेक करते है, तो दोपहर छुट्टी होने पर उन्हें बस की लाइन में लगाने और यहां तक कि बस के साथ जाने जैसे काम सौंपे जाते है। उन्हें परिसर की सफाई की निगरानी भी रखनी होती है, तो परिसर में लगे पेड-पौधों के रखरखाव की भी। ये सारे वे काम है, जो अध्यापकों के नहीं है, मगर उन्हें करने ही पडते है।
ल्ेकिन यह सिर्फ निजी स्कूलों की समस्या नहीं है। हाल-फिलहाल तक सभी अध्यापकों को चुनाव के समय पढाने-लिखाने का काम छोड चुनावी ड्यूटी निभानी पडती है। वे इससे इनकार भी नहीं कर सकते थे। आम चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, या फिर विधान परिषद्, नगर पालिका, ब्लाॅक प्रमुख हो या ग्राम पंचायत के चुनाव, ऐसा कोई भी अनुष्ठान अध्यापकों से ’बेगारी’ करवाए बिना पूरा नहीं होता था। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद केन्द्र सरकार नें कहा कि वह अब अध्यापकों को चुनाव ड्यूटी पर नहीं लगाएगी। लेकिन चुनाव की ड्यूटी अकेला ऐसा काम नहीं है, जो अध्यपकों को मजबूरन करना पडता है। जनगणना का काम भी उनकी सेवा लिए बिना संपन्न नही हो पाता है। जनगणना हर दस साल बाद होती है और पहली से दसवीं कक्षा तक के हर बच्चे के जीवन में एक ऐसा साल जरूर आता है, जब उसके अध्यापक उसे सिर्फ इसलिए कम पढा पाते है कि वे जनगणना में लगे थे। ग्रामीण स्तर पर पढाने वाले अध्यापकों को तो कई तरह के सर्वे आदि में भी शामिल किया जाता है, इसके अलावा उन्हें पंचायत के भी बहुत सारे काम करने पडते है। अध्यापक अच्छा अध्यापन करें, हमारी व्यवस्था की उनसे अपेक्षाएं इससे कहीं अधिक की होती हैं।
आजादी के बाद के कुछ वर्षो तक ऐसा करना शायद जरूरी था, क्योंकि शिक्षा का विस्तार बहुत कम हुआ था और चुनाव, गनगणना जैसे कामों के लिए जिस तादाद में पढे लिखें लोगों की जरूरत थी, उतने उपलब्ध नहीं थे। लेकिन अब यह मजबूरी नहीं है, फिर भी हम इस परंपरा को ढोए जा रहें है। कारण यह है कि सिद्धान्त मे भले ही हम शिक्षण को एक सम्मानजनक काम कहते हों, लेकिन समाज में इसे ऊंचे स्तर का कर्म नहीें माना जाता। मां-बाप सबसे पहले अपने बच्चों को इंजीनियर, डाॅक्टर, एमबीए, वगैरह बनाना चाहते है, शिक्षक बनाना उनकी प्राथकमिकता सूची में बहुत बाद में आता है। शिक्षकों को अच्छे दर्जे के पेशेवर न मानने का नतीजा है कि एक तरफ तो इससे शिक्षा का स्तर गिरा है और दूसरी तरफ यह धारणा बनी है कि उन्हें मजदूरों की तरह किसी भी काम में लगाया जा सकता है। हम अपने शिक्षकों को भावी पीढी के निर्माण की आधारशीला के रूप मंे नहीं देखत, बल्कि सिखाने के काम करने वाले एक कर्मचारी के रूप में देखते हैं। जब तक यह सोच नहीं बदलेंगी, शिक्षक खटते रहेंगे।
साभार- हिन्दुस्तान
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