उत्तराखंड में शुरू की गई मासिक परीक्षा की व्यवस्था लड़खड़ाती नजर आ रही है। सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे कक्षा 3 से 12वीं तक के बच्चों के लिए यह परीक्षा अनिवार्य की गई है। पिछले साल इसकी शुरुआत करते वक्त दावा किया गया था कि इससे शिक्षा का स्तर सुधरेगा, शिक्षकों को अपनी जवाबदेही का एहसास होगा। यही नहीं बच्चों को हर महीने अपनी खामियों का पता चल जाएगा और इससे उन्हें अपनी परफारमेंस सुधारने में मदद मिलेगी। लेकिन, कहने में संकोच नहीं कि शिक्षा विभाग की यह मुहिम अभी तक ठीक से दिशा भी नहीं पकड़ पाई। एक साल बाद भी मासिक परीक्षा को लेकर संशय दूर नहीं हो पाया। इसकी प्रक्रिया ही व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रही है। आलम यह कि विद्यालयों के पास पाठ्यक्रम विभाजन की जानकारी तक ठीक से नहीं है। उन्हें नहीं मालूम किस महीने कितना कोर्स पढ़ाया जाना है। एससीईआरटी के स्तर पर तैयार प्रश्नपत्रों को विद्यालय तक पहुंचाने की व्यवस्था भी राम भरोसे है। दूर-दराज के विद्यालयों में वाट्सएप के जरिये प्रश्नपत्र पहुंचाए जा रहे हैं। कहने में कोई गुरेज नहीं कि मासिक परीक्षा के नाम पर बस खानापूरी की जा रही है। परीक्षाओं के नतीजों का लेकर भी स्पष्टता नहीं है। शिक्षा विभाग के दस्तावेजों में सफलता का ग्राफ जरूर लगातार ऊंचा उठ रहा है, लेकिन ये राष्ट्रीय आंकड़ों से कतई मेल नहीं खा रहे हैं, यहां तक कि सीएम डैश बोर्ड से भी इनका मिलान नहीं हो रहा है। ऐसे में सहज ही समझा जा सकता है कि मासिक परीक्षा कितनी गंभीरता के साथ हो रही होंगी। अगर कागजों का पेट भरने के लिए यह सब किया जा रहा है, तो इस पर सोच विचार करना होगा। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि शिक्षा विभाग को यह तक नहीं मालूम कि मासिक परीक्षाएं कैसी हो रही हैं, इनका मूल्यांकन सही तरीके से हो रहा है या नहीं। परीक्षा से संबंधित कोई प्रमाणिक रिकॉर्ड विभाग के पास नहीं है। जाहिर है मासिक परीक्षा के लिए शॉर्टकट अपनाया जा रहा है। प्रदेश के शिक्षा मंत्री मासिक परीक्षा की व्यवस्था को अच्छी करार देते हैं, मगर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि इसमें अभी तक खामियां क्यों बनी हुई हैं। सवाल खड़ा हो रहा है कि अभी तक मंत्रलय किस बात का इंतजार कर रहा था। सरकार को इस पूरी व्यवस्था पर गंभीरता से मनन करना चाहिए। शैक्षिक गुणवत्ता लिए इस प्रकार के प्रयासों को शिद्दत के साथ आगे बढ़ाने की जरूरत है।
साभार जागरण
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