शिक्षा का माध्यम बनें भारतीय भाषाएं

भारतीय भाषाओं के समक्ष बड़ी चुनौती शीर्षक से शंकर शरण द्वारा लिखित लेख पढ़ा। लेखक ने भाषाओं के संदर्भ में वर्तमान के अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया है। निरूसंदेह आज भी ब्रिटिश शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर पूरी तरह हावी है और उसको हटाने को लेकर अथवा भारतीय भाषाओं की पुनस्र्थापना को लेकर सारा विमर्श राजनीतिक अधिक हो गया है। निश्चित रूप से लेखक द्वारा उठाया गया यह प्रश्न उचित है कि भाषा निर्जीव यंत्र नहीं है, क्योंकि भाषा ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है और उसके अंदर चेतना का स्पंदन भी। यह भाषा ही सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को संजोती है तथा उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करती है। विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहां प्राथमिक ही नहीं, पूरी शिक्षा वहां की अपनी भाषा में दी जाती है और वे देश आज उच्च शिखरों को छू रहे हैं। फिर कौन-सी बाधा है कि हम अपनी भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम नहीं बना पा रहे हैं? आज यह एक गंभीर समस्या है कि हमारे अबोध बालक विदेशी भाषा के माध्यम से अपने ज्ञान का विकृत विस्तार कर रहे हैं और दादी-नानी के किस्से-कहानियों में छिपे संस्कारों से दूर हो रहे हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व से आज हम सब ग्रसित हैं। आवश्यकता है मजबूती से निर्णय लेकर भारतीय भाषाओं में विमर्श की ओर बढ़ा जाए तथा शिक्षा और संस्कार की भाषा भारतीय भाषाएं हों ऐसा प्रयास किया जाए। हिंदी संपर्क की भाषा है, संविधान सम्मत राजभाषा भी है। क्या आज यह अनिवार्य नहीं है कि हम अंग्रेजी को छोड़कर, प्रादेशिक भेदभाव भूलकर हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को पुनस्र्थापित करें?


डॉ. वेदप्रकाश, हंसराज कॉलेज, दिल्ली

साभार जागरण

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