घरेलू बीमारी का विदेशी इलाज

शिक्षाविदों के बीच अकसर फिनलैंड की शिक्षा की गुणवता, सर्वसुलभ उपलब्धता और उत्तम प्रबंधन की चर्चा होती रहती है। यह भी वे सब जानते है कि जो रणनीतियां फिनलैंड में सफल हुई है उन्हें उधार लेकर भारत में लागू करना न उचित होगा और न ही कोई राज्य उन्हें लागू कर पाने की स्थिति में है। यह भी आवश्यक नहीं है कि वहां की नीतियां भारत के लिए भी उपयुक्त हो। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की भरमार है कि जब भी किसी देश नें शिक्षा को सही ढंग से सभी को उपलब्ध कराया, उसकी प्रगति तथा विकास की गति तेजी से बढी। विचारकों में कितने ही मनीषियों के नाम लिए जा सकते है जिन्हें आगे का परिदृश्य स्पष्ट दिखाई दिया और उन्होंने इसे देशवासियों के समक्ष जोर देकर रखा भी। शिक्षा की महत्ता के बारेेे में 1901 में महात्मा गांधी नें हिंद स्वराज में विस्तार से लिखा था। इसके पहले स्वामी विवेकानन्द नें कहा था कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर ही जोर होगा। महात्मा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर नें इसे पहचाना कि देश मंे यदि प्रगति के लाभ प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने है तो निश्चित रूप से हर व्यक्ति तक शिक्षा को ले जाना सबसे पहली प्राथमिकता होगी। इस सोच का परिणाम था कि भारत के संविधान में यह प्रावधान किया गया कि 14 वर्ष के हर बच्चे को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था राज्य करेंगा। राज्य नें अपनी इस जिम्मेदारी को इस निष्ठा और कर्मठता से कभी नहीं निभाया जो इस प्रावधान की आत्मा में अंतर्निहित थी। यदि ऐसा होता तो आज सरकारी स्कूलों की साख तिरोहित नहीं हो गयी होती, हर व्यक्ति पेट काटकर निजी स्कूलों में बच्चों को भेजने की दौड़ में शामिल नही होता। जो इसमें परिवर्तन ला सकते थे, केवल शब्दों से खेलते रहें और प्रगति के नाम पर आंकडे परोसते रहें। नेतृत्व जातिवाद, क्षेत्रीयता, अल्पसंख्यकवाद, परिवारवाद तथा स्वाथ्र्य और संग्रहण में ही उलझा रहा। उसका ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि शिक्षा ही सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवर्तन का ठोस आधार गढ़ती हैं। उसी पर सामाजिक सद्भाव तथा पंथिक एकता मजबूती पाती है जो भारत जैसे विविधता संपन्न राष्ट्र के विकास की पहली सीढी हैं। भारत और फिनलैंड के अंतर को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि की गहरी समझ आवश्यक हैं। फिनलैंड एक छोटा देश है जिसे एक समृद्ध और सबलपूर्ण आर्थिक स्थिति मिली हुई हैं। उसनें शिक्षा की महत्ता को समझा और इसे प्राथमिकता के आधार पर सब तक पहुंचाया। वहां स्कूल स्तर पर अपवाद को छोडकर सभी स्कूल सरकारी खर्चे से चलते है, जहां पर बच्चों को हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध होती हैं। वहां स्कूलों में ऐसा नहीं होता है कि पीने का पानी ना हो, शौचालय ना हो, मध्यान्ह भोजन में हेरा-फेरी होती हो या बारिश या बर्फ पडने पर छत टपकती हो। फिनलैंड उन देशों में अग्रणी है जहां ऐसा कोई स्कूल नहीं है जिसमें पढने की और पढाने की सारी साम्रगी समय से सभी बच्चों तथा अध्यापकों को उपलब्ध ना हो पाती हो। वहां के सभी स्कूल सभी बच्चों के लिए खुले होते है, आर्थिक स्थिति उसमें आडे नहीं आती हैं। भारत के स्कूल बच्चों के बीच भेदभाव पैदा करने का काम कर रहें है। सरकारी स्कूलों की स्थिति भी लगातार नीचे जा रही है। सरकारों ने कभी इस बात के महत्व को नही जाना कि यदि स्कूल में सभी वर्गो के विद्यार्थी एक साथ पढे, खेलें और बचपन का आनंद लें तों इससे सामाजिक सद्भाव मजबूत होगा। आज कुछ अपवादों को छोडकर जितने भी बडे नाम वाले निजी स्कूल है वें सभी धनार्जन में व्यस्त है। लोगों को अपनी चमक-दमक से प्रभावित करते है, अध्यापकों के ऊपर पूर्ण नियंत्रण रखते है और सारा ध्यान बोर्ड परीक्षाओं के अकों पर केंन्द्रित करते है। दूसरी तरफ में आज भी 1.06 लाख ऐसे स्कूल है, जहां पर केवल एक अध्यापक है। राजधानी दिल्ली, जहां की सरकार फिनलैंड में अधिक रूचि लें रहीं है, में भी ऐसे तेरह स्कूल है। वैसे मध्य प्रदेश इसमें सबसे आगे है, वहां ऐसे 17874 स्कूल है। जब राज्य अपनी भावी पीढी को सबसे महत्वपूर्ण नागरिक मानकर नीतियां निर्धारित करता हैं तब वह शिक्षा के साथ स्वास्थय, पोषण, खेलकूद, प्रशिक्षण अध्यापको मे कोई कमी नहीं होने देता हैं। फिनलैंड में हर स्कूल में न केवल सही अनुपात मे अध्यापक नियुक्त होते हैं, बल्कि उन बच्चों के लिए जिन्हें शिक्षा में अधिक सहायता की आवश्यकता होती हैं अलग से अध्यापक देने का प्रावधान भी किया जाता हैं। भारत में 43 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषित है। अधिकांश को स्वास्थय सुविधाएं नहीं मिल पाती। स्वास्थय के सबसे ताजा वैश्विक रिपोर्ट क अनुसार भारत 188 देंशों में 143 वें स्थान पर है। फिनलैंड इसमें छठे स्थान पर हैं। वहां 1971 में अध्यापक और शिक्षक का अनुपात 1ः16.2 था, जो 2013 मे और अच्छा होकर 1ः13.2 हो गया। भारत में यह 1971 मे 1ः40.6 और 2011 में 1ः42.9 हो गया। किस राज्य में इसे सही करने या सुधारने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हैं? अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बच्चों में सीखनें की क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए एक कार्यक्रम 2001-02 में प्रारम्भ हुआ। इसे पीसा (प्रोग्राम आॅफ इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट) के संबोधन से जाना जाता है। भारत नें इसमें भाग लिया था और उसकी दयनीय स्थिति उजागर हुई थी। 73 देशों में भारत 72 वें स्थान पर रहा था। बाद के चक्रों में भारत नें भाग ही नहीं लिया वह पीछे हट गया। यह कहा जा सकता है कि बडे लक्ष्य रखना सराहनीय हो सकता है, परंतु अपनी वास्तविक स्थिति और क्षमता का ध्यान रखना भी सदा ही लाभकारी होता है। यह उपलब्धियों की संभावना को बढा देता है। भारत की विशालता, उसकी विविधता तथा उसकी सशक्त ज्ञानार्जन परंपरा मे आज भी वे तत्व देखे जा सकते हैं जो देश की शिक्षा व्यवस्था को नया जीवन प्रदान कर सकते है। क्या टैगोर, विवकानन्द, महात्मा फूले, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, श्री अरबिंद तथा अन्य मनीषियों नें जो शैक्षिक दर्शन देश के समक्ष रखा है उसका अध्ययन हमे सही रास्ता नही दिखा सकता हैं? प्रश्न हमारी मानसिकता का है जिसे श्रेष्ठता केवल विदेेशों में ही दिखाई देती हैं। इससे निकलना भले ही कठिन ही हो, अन्य कोई विकल्प है ही नहीं।


लेखक-जगमोहन सिंह राजपूत


साभार-दैनिक जागरण

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