बीते दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने देश में नई शिक्षा नीति के पुनर्गठन के लिए एक मसौदा नीति प्रस्तुत की थी। उसके बाद से ही इस पर बहस शुरू हो गई है कि नए भारत में हमारी शिक्षा नीति कैसी हो? वह नीति जो सबके साथ सबका विकास कर सके। मैं अपने 42 वर्ष के अनुभव के तौर पर यह मानता हूं कि नीतियों में एकरूपता और स्पष्टता होनी चाहिए तभी हमारी उच्च शिक्षा गुणवत्ता युक्त हो सकेगी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे विद्यार्थी प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे। देश में मोटे तौर पर तीन तरह के विश्वविद्यालय हैं-राज्य विश्वविद्यालय, केंद्रीय विश्वविद्यालय और सम (डीम्ड) विश्वविद्यालय। और ये तीनों अलग-अलग नियमों से संचालित होते हैं। राज्य विश्वविद्यालय भी तीन जगहों से निर्देशित होते हैं। पहला है अध्यादेश और अधिनियम से, दूसरा है सरकारी आदेश से और तीसरा है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से। शिक्षा को कभी एक व्यवसाय के रूप में या लाभ कमाने वाले संस्थान के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि इसे एक सामाजिक निवेश माना जाता रहा है, पर पिछले दशकों में इस नजरिये में बदलाव आया है। आप किसी भी हाईवे या शहर से गुजरें तो आपको लुभावने वादे करते शैक्षिक संस्थानों के बड़े-बड़े बोर्ड दिखेंगे, पर उनके वायदों को जांचने-परखने का कोई उपकरण हमारे पास नहीं है। इसीलिए वहां से विद्यार्थी नहीं पेशेवर निकल रहे हैं, जिसका असर समाज की सामाजिकता पर पड़ रहा है और संवेदनशीलता में कमी आ रही है।
हर गली-मोहल्ले में खुलने वाले इन संस्थानों के पीछे संबद्धता का जिन्न जिम्मेदार है। उदाहरण के तौर पर कानपुर विश्वविद्यालय से 1100 और आगरा विश्वविद्यालय से 1035 कॉलेज संबद्ध हैं। ऐसे में अच्छे और पुराने डिग्री कॉलेजों को स्वायत्तता दी जानी चाहिए। इसके अलावा विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को भी बढ़ावा दिया ही जाना चाहिए। विश्वविद्यालय खुद पाठ्यक्रम बनाएं और परीक्षा करवाएं। इससे उनके ऊपर से बोझ कम होगा और वे शोध पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे। अभी सिर्फ परीक्षा एवं परिणाम निकालने में ही समय निकल जाता है। स्वायत्तता को बढ़ावा दिया जाए और पुराने विश्वविद्यालयों को संबद्धता से मुक्त किया जाए जिससे वे अपनी पहचान शोध और शिक्षा के क्षेत्र में बना सकें। दुनिया के जितने भी सर्वश्रेष्ठ संस्थान या विश्वविद्यालय हैं, वे संबद्धता नहीं देते हैं और उन्हें सरकार के साथ-साथ समाज के हर तबके से आर्थिक सहयोग मिलता है। अब हमें भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और शोध पर जोर देना होगा। साथ ही शिक्षकों की उपस्थिति की निगरानी होनी चाहिए, ताकि शिक्षण पर जोर रहे। पाठ्यक्रम में बदलाव उद्योगों की जरूरत के अनुसार होना चाहिए। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि उच्च शिक्षा की सर्वोच्च नियामक संस्था बार-बार अपने नियमों में बदलाव कर रही है जो यह दिखाता है कि हमारी शिक्षा के आदर्श स्वरूप में स्पष्टता नहीं है। उदाहरण के तौर पर छठा वेतनमान 2006 में लागू हुआ तो नियमन 2010 में आया। उत्तर प्रदेश में यह नियमन 2014 में लागू हुआ। इसी तरह सातवें वेतनमान का नियमन 2018 में आ गया। उत्तर प्रदेश में यह अब लागू होगा। बार-बार केंद्रीय नीति बदलने से शिक्षकों की नियुक्ति, प्रोन्नति, छुट्टी आदि के नियम राज्य सरकारों द्वारा उसके अनुरूप बदलाव करने में वर्षो लग जाते हैं। इससे वाद-प्रतिवाद बढ़ते हैं। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर एक नीति बने और सभी राज्य उसे लागू करें। अभी शिक्षकों की सेवानिवृत्ति की उम्र और कुलपतियों के कार्यकाल की सीमा भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं। ऐसे में भी राष्ट्रीय स्तर पर एक नीति की आवश्यकता है जो सभी के लिए एक जैसी हो। केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है, पर उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों में यह तीन साल का है।
दूसरी ओर विश्वविद्यालयों एवं डिग्री कॉलेजों में शिक्षकों की भारी कमी है। यहां करीब 31 प्रतिशत पद खाली हैं। यूजीसी के 200 प्वाइंट रोस्टर नियम को लागू किया गया है। इसके अनुसार अब विश्वविद्यालय को यूनिट मानकर आरक्षण लागू होगा। पहले विभाग स्तर पर आरक्षण लागू होना था। वहीं गरीब सवर्णो को आरक्षण देने पर अभी तक राज्य निर्णय लागू नहीं करवा पाए हैं। ऐसे में नियुक्ति की प्रक्रिया अभी तक शुरू नहीं हो पाई है। सबसे महत्वपूर्ण बात धन की है जिनसे सरकारों ने लगातार हाथ खींचे हैं। विश्वविद्यालयों के पास विद्यार्थियों को बेहतर संसाधन उपलब्ध करवाने के लिए धन नहीं हैं। सौ साल पुराने लखनऊ विश्वविद्यालय में हर साल शिक्षक एवं कर्मचारियों के वेतन पर 147 करोड़ रुपये खर्च होते हैं और राज्य सरकार 34 करोड़ रुपये की ही मदद दे पाती है। सरकार को उच्च शिक्षा के लिए अपना दिल बड़ा करना होगा, क्योंकि प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों का संकुल अभी भी सरकारी विश्वविद्यालयों के ही पास है। अगर सरकार निवेश नहीं करेगी तो यह पौधा जो अब मुरझा रहा है, बिल्कुल सूख भी सकता है।
उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में एकसमान पाठयक्रम लागू किया जाए और यूजीसी के निर्देश के अनुसार दस प्रतिशत पाठ्यक्रम स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर शामिल किया जाए। यूनिवर्सिटी स्नातक एवं परास्नातक स्तर पर सेमेस्टर प्रणाली लागू करें और नकल पर सख्ती करें। स्नातक में परीक्षा प्रणाली में सुधार कर परीक्षा में बहुविकल्पीय सवाल पूछे जाएं जिससे छात्र पूरा कोर्स पढ़ने को मजबूर होंगे और समय पर परीक्षा परिणाम भी घोषित हो सकेगा।
विश्वविद्यालयों में छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ स्वरोजगार के लिए भी प्रेरित करना होगा। उद्योग जगत की जरूरत के अनुसार कोर्स डिजाइन किया जाना जरूरी है। प्रोफेशनल कोर्स तो इंडस्ट्री की जरूरतों को पूरा करने वाले जरूर होने चाहिए। उद्योग जगत के विशेषज्ञ, बड़े उद्यमी, वैज्ञानिक, साहित्यकार और अर्थशास्त्री इत्यादि के व्याख्यान नियमित रूप से आयोजित किए जाएं। सेंट्रल प्लेसमेंट सेल बनाकर विद्यार्थियों को अधिक से अधिक रोजगार हासिल करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। रिसर्च को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालय न सिर्फ अच्छे संस्थानों से गठजोड़ कर साझा शोध करें, बल्कि विभागों के बीच भी प्रतिस्पर्धी भावना को बढ़ाएं। इसके साथ ही विद्यार्थियों से जुड़ी सुविधाएं अधिक से अधिक ऑनलाइन करने पर जोर देना चाहिए।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति हैं)
लेखक - प्रो. सुरेंद्र प्रताप सिंह
साभार जागरण
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