नई शिक्षा नीति को लागू करने की चुनौती शीर्षक से लिखे अपने लेख में जगमोहन सिंह राजपूत ने नई शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस विरोधाभास को व्यक्त किया है, वह हकीकत के बहुत करीब है। स्वतंत्र भारत में शिक्षाविद् डॉ. राधाकृष्णन, लक्ष्मण स्वामी मुदलियार और डीएस कोठारी की अध्यक्षता में गठित क्रमशरू विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, माध्यमिक शिक्षा आयोग और भारतीय शिक्षा आयोग की महत्वपूर्ण संस्तुतियों को यदि तत्कालीन भारत सरकार द्वारा प्राथमिक, माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए लागू कर दिया जाता तो आज देश की शिक्षा व्यवस्था में घुन नहीं लगते। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि भारत में विकास की अन्य योजनाओं के सापेक्ष शिक्षा को निचले पायदान पर रखकर इसकी हर स्तर पर अनदेखी की जाती रही। जिसका दुष्परिणाम यह रहा कि आज वैश्विक रैंकिंग में भारतीय शिक्षा अपना स्थान नहीं बना पा रही है। मोदी सरकार नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए कृतसंकल्पित जरूर दिखाई दे रही है, लेकिन जब अवा ही खराब हो तो कुम्हार क्या कर सकता है? वस्तुतरू शिक्षा की स्ववित्त पोषित व्यवस्था से उपजे लाभदायक शैक्षिक व्यापार ने देश की शिक्षा को जिस तरह से रसातल में पहुंचाने का काम किया है, उससे उबर पाना मुश्किल है। ऐसे में कोई भी आदर्श शिक्षा नीति तब तक कारगर नहीं हो सकती जब तक कुशल प्रबंधन, नियमन और निगरानी के द्वारा स्ववित्त पोषित शिक्षा के दोषपूर्ण अवे को दुरुस्त नहीं किया जाता। माना कि देश की बढ़ती आबादी के सापेक्ष स्ववित्त शिक्षा व्यवस्था आवश्यक है और यह होनी भी चाहिए, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए इन संस्थाओं पर सरकार के साथ-साथ सामाजिक नियंत्रण भी जरूरी है। इसी तरह अच्छे संसाधनों से सुसच्जित विद्यालय भवनों की तब तक कोई उपयोगिता नहीं है जब तक ठीक से प्रशिक्षित शिक्षक अपने विद्यार्थियों को शिक्षित करने में इनका सदुपयोग नहीं करते। इसके लिए शिक्षक प्रशिक्षण की कमजोर होती कड़ी को भी सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
डॉ. वीपी पाण्डेय, अलीगढ
साभार जागरण
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