शिक्षा का निजीकरण नहीं सामाजीकरण हो

निजीकरण की चपेट में शिक्षा शीर्षक से गत दिनों लिखे अपने लेख में गिरीश्वर मिश्र ने देश में पैर पसारती स्ववित्त पोषित शिक्षा व्यवस्था को लेकर जो चिंता व्यक्त की है, वह केवल एक शिक्षाविद की पीड़ा मात्र न होकर भारत के विकास को अवरुद्ध करने वाली एक ऐसी रुग्ण व्यवस्था है, जिसका समय रहते निदान जरूरी है। माना कि बढ़ती जनसंख्या की दृष्टि से शिक्षा का निजीकरण इस देश की मजबूरी है, लेकिन आज निजीकरण की ओट में फलने-फूलने वाले शैक्षिक उद्योग को जिस तरह से अनदेखा किया जा रहा है, वह उचित नहीं है। शिक्षा का निजीकरण बुरा नहीं है, बुराई इसके नियमन और प्रबंधन में है। एक ही विश्वविद्यालय के प्रशासन में सरकार द्वारा अनुदानित शिक्षण संस्थाओं के साथ-साथ स्ववित्त पोषित शिक्षण संस्थाओं के घालमेल से ठीक से संचालित होने वाली अनुदानित शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। नई शिक्षा नीति में इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। स्ववित्त पोषित शिक्षा व्यवस्था के लिए अलग से प्रशासनिक व्यवस्था की जाए जो इन संस्थाओं पर प्रभावी नियंत्रण रखकर इनकी मनमानी पर अंकुश लगा सके। व्यापारिक दृष्टि से संचालित हो रही निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्तर पर स्ववित्त पोषित शिक्षा के नियमन और नियंत्रण के लिए एक निकाय स्थापित कर अखिल भारतीय स्तर पर निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए श्रेष्ठ प्रबंधन और प्रशासन की एकरूपता विकसित की जाए। इस प्रकार सरकार से अनुदानित शिक्षण संस्थाओं और स्ववित्त पोषित शिक्षा व्यवस्था के लिए अलग-अलग प्रबंधन और प्रशासन की व्यवस्था निर्धारित करके शिक्षा के निजीकरण को सामाजीकरण में परिवर्तित कर शिक्षा की निरंकुश होती निजीकरण व्यवस्था पर अंकुश लगाया जा सकता है। निजता की पर्याय बन रही स्ववित्त पोषित शिक्षा व्यवस्था का प्रबंधकीय और प्रशासनिक दृष्टि से सामाजीकरण होना शिक्षा के सुदृढ़ीकरण के लिए जरूरी है।


pandeyvp1960@gmail.com
साभार जागरण

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