निजी सस्थानों में हो रही फीस बढोतरी एक नया राजनीतिक मुद्दा बनकर उभर रही हैंै। चुनावी राजनीति में वोट जुटाने में यह मुद्दा कितना कारगर होगा, यह तो हमें भविष्य में ही पता चलेगा, पर मुझे राजनीतिज्ञों के ’पाॅलिटिकल इंट्यूशन’ पर तटस्थ बुद्धिजीवियों की समझ-बूझ से ज्यादा भरोसा है। कुछ समय पहले पंजाब मे निजी स्कूलों की फीस बढोतरी को लेकर आंदोलन हुए, पंजाब में चुनाव भी होने वाले है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी निजी स्कूलों की फीस को नियंत्रित करने पर जोर देती रही है, और अब केरल विधानसभा में हंगामा चल रहा है। ध्यान से देखेंगे तो इन आंदोलनो का मिजाज समझ में आएगा। विरोध निजीकरण का नहीं, जब उच्च शिक्षा या यूजीसी बजट में कटौती होती है, तो विपक्ष में बैठी पार्टियां या तो कोई विरोध नहीं करती या टोकन विरोध होता हैं, पर निजी स्कूलों-काॅलेजों के मामले में राजनीतिक दलों में सक्रियता बढती जा रहीं हैं। ऐसा लगता है कि मध्यवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय जनता, जो शिक्षा के बलबूते सामाजिक-आर्थिक उन्नति की सीढियां चढना चाहती है, शिक्षा को हवा पानी की तरह नहीं, बल्कि राशन के अनाज की तरह दिखती है। शिक्षा के अधिकार कानून-जिसमें स्कूली शिक्षा को नागरिक का मौलिक अधिकार माना गया है, के लागू होने के बाद भी लोगों की राजनीतिक कल्पना नहीं बदली हैं। आज भी सबसे अधिक मुकदमे या सर्वाधिक चर्चा निजी स्कूलों में वचिंत वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित की गई 25 प्रतिशत सीट पर हो रहीं हैं।
लेखक-मनोज कुमार
साभार-हिन्दुस्तान
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