शिक्षा की उपेक्षा करता भारत

भारत की 2011 की जन-गणना रपट को यदि आप ध्यान से पढ़ें तो आपको कई चौंकानेवाले तथ्य मिलेंगे। जैसे शिक्षा को ही लें आपको यह जानकर दुख होगा कि देश के लगभग 8 करोड़ बच्चे ऐसे हैं, जो स्कूल जाते ही नहीं। हर साल 20-25 करोड़ बच्चे स्कूलों में भर्ती होते हैं। यदि उनमें से एक-तिहाई स्कूल का मुंह ही नहीं देखते तो इसकी जिम्मेदारी किसकी है? भारत सरकार ने बच्चों की शिक्षा के अधिकार का कानून तो पास कर रखा है लेकिन उसे लागू कौन करेगा? ये 8 करोड़ बच्चे बड़े होते-होते पता नहीं, कितने करोड़ हो जाएंगे। अभी हमारी सरकारें दावा करती हैं कि भारत में लगभग 75 प्रतिशत लोग साक्षर हैं लेकिन उनसे कोई पूछे कि जिस देश में एक-तिहाई बच्चे स्कूल नहीं जाते, उसमें 75 प्रतिशत साक्षर कैसे हो सकते हैं? और फिर साक्षर होने और शिक्षित होने में भी बहुत फर्क है।


यदि कोई अपना नाम लिख सके और उसे पढ़ सके तो वह साक्षर कहलाता है लेकिन यह शिक्षित होना तो नहीं है। भारत में बीए और एमए तक आते-आते लगभग 90 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई छोड़ चुके होते हैं। भारत में शिक्षा की जितनी उपेक्षा और दुर्दशा है, वैसी दुनिया के किसी शक्तिशाली और संपन्न देश में नहीं है। सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून तो बना दिया लेकिन जो मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते, उन पर कोई जुर्माना क्यों नहीं लगाया जाता? ताइवान में तो ऐसे मां-बाप के लिए सजा का प्रावधान है। इसके अलावा भारत में शिक्षा इतनी मंहगी हो गई है, बच्चों पर इतनी किताबें लाद दी जाती हैं, परीक्षाएं अत्यधिक उबाउ हो गई हैं कि गरीब और ग्रामीण लोग अपने बच्चों को घर बिठाना ही बेहतर समझते हैं। निजी स्कूल और काॅलेज लूट-पाट के सबसे बड़े अड्डे बन गए हैं।


अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई उनका ब्रह्मास्त्र है। यह ब्रह्मास्त्र उनकी पढ़ाई को सीधा नौकरी से जोड़ देता है। याने शिक्षा भी हमारे देश में जादू-टोना बन गई है। इसीलिए देश के लाखों गरीब लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय खेतों और कारखानों में मजदूरी करने भेज देते हैं। गरीबों और ग्रामीणों के ये बच्चे स्कूल जाने की बजाय शहरों में जाकर अमीरों के घरेलू नौकर बन जाते हैं। ऐसे बच्चों की संख्या भी लगभग एक करोड़ है। यदि हम भारत को शक्तिशाली और संपन्न देश बना देखना चाहते हैं तो हमें अगले पांच वर्ष में शत-प्रतिशत साक्षरता का आह्वान करना होगा।



लेखक -वेद प्रताप वैदिक

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