किस्मत को कोसने के बजाय कर्म करें

किस्मत को वही कोसते हैं, जिनके पास जीवन जीने और अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता। इसके लिए वैसे विद्यार्थियों का अन्तर और बाह्य वातावरण किस प्रकार का है, इसे समझने की आवश्यकता है, तदुपरांत वातावरण से उत्पन्न नकारात्मक शक्तियों को आत्मबल और इच्छाशक्ति के सहारे विद्यार्थी अपने सकारात्मक प्रभाव में लेकर उनसे कैसे और कितनी मात्र में ऊर्जा पा सकते हैं, इसे माता-पिता-अभिभावक तथा अध्यापक-वर्ग को समझना होगा। कर्मप्रधान महाग्रंथ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में ‘कर्म की उपयोगिता और महत्ता’ को अच्छी तरह प्रतिपादित करते हुए संसार की निस्सारता को विधिवत निरूपित किया गया है। हमारे विद्यार्थी यदि उस महाग्रंथ के इस प्रेरक वाक्य, ‘कर्म करो, क्योंकि तुम्हारा अधिकार ‘कर्म’ पर ही है’, को हृदयंगम कर लेते हैं तो ‘किस्मत’ की व्यर्थता सिद्ध होती दिखती है। किस्मत तो आलस्य की पाठशाला में दिखती है, परंतु जहां ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ का स्वर निनादित होता है, वहां ‘किस्मत’ कपूर की टिकिया की तरह उड़ जाती है। ऐसा इसलिए भी कि किस्मत मात्र एक भ्रम है और भ्रम का कोई ‘अस्तित्व’ नहीं होता। फिर जिसका अस्तित्व नहीं होता, उसके पीछे भागने से मनुष्य का मूल कर्म बहुत पीछे छूट जाता है। कुरुक्षेत्र के संग्रामस्थल पर जिस समय अजरुन का रणरथ सारथी कृष्णसहित पहुंचता है तब रणक्षेत्र में कौरवों की सेना की ओर बढ़ते समय अपने सगे-संबंधियों और गुरुजन को देखते ही अजरुन मोहासक्त हो जाते हैं और अप्रतिम धनुर्धर के हाथों से ‘गाण्डीव’ सरकने लगता है। उनकी उस स्थिति को भांपते हुए रणनीतिज्ञ कृष्ण जब युद्ध करने के लिए कहते हैं तब वे स्वजन-गुरुजन पर कैसे बाण-प्रहार करें, ऐसा कहकर पीछे हटने लगते हैं। इस पर कृष्ण कहते हैं, जिन्हें तुम जीवित समझते हो, वे मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, इसलिए इस भ्रम और संशय का त्याग कर युद्ध के लिए कृतनिश्चय हो। उसके साथ ही कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। इस प्रकार अजरुन का मोहभंग हुआ था। उसी तरह आज के विद्यार्थियों को अपने भीतर के अंतद्वंद्व को समझना होगा और स्वयं से सकारात्मक संवाद कर, कर्म को प्राथमिकता देते हुए, ‘किस्मत’-जैसी जीवन की कमजोर कड़ी को तोड़ फेंकना होगा।


(भाषाविद् और समीक्षक)


डा० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


साभार जागरण

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