राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रस्तावित प्रारूप को व्यापक प्रतिक्रिया मिली है, विचारशील समर्थन और व्यावहारिक आलोचना से लेकर सद्भावी आलोचना तक। इनमें बहुत सारी प्रतिक्रियाएं समूह संवादों में हो रही हैं और बहुत सारी प्रतिक्रियाएं मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भी मिल रही है। अंतिम नीति इन प्रतिक्रियाओं से समृद्ध ही होगी। प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का स्पष्ट और सशक्त समर्थन करती है। यह सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के अंदर और उसके जरिए बाहर भी उच्च गुणवत्ता, न्यायसंगत और सार्वभौमिक शिक्षा की कल्पना करती है। यह नीति उच्च शिक्षा से स्कूली शिक्षा तक लागू होगी, जिसमें मोटे तौर पर तीन से 22 साल की उम्र तक के छात्र-छात्राएं आते है। जनसेवा के लिए संकल्पित, गैर-मुनाफा वाले निजी संस्थानों की भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुनिश्चित भूमिका है। हालांकि उच्च गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया कराना राज्य की जिम्मेदारी है, सारे प्रयास इसी दिशा में होने चाहिए।
सार्वजनिक शिक्षा पर सरकारी खर्च वर्तमान सार्वजनिक व्यव के 10 प्रतिशत से बढ़ाकर आगामी 10 वर्ष में 20 प्रतिशत कर देना चाहिए। यह आकलन मोटे तौर पर बदलाव की दिशा और पैमाने पर आधारित है। शिक्षा नीति श्क्षिा की वित्तीय जरूरतों को दर्शाती है और उसे इसकी चिंता नहीं होनी चाहिए कि पैसा कहां से आएगा, यह तो राज्य या सरकार का कार्य है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम स्कूली शिक्षा का मुख्य हिस्सा है। यह सार्वजनिक शिक्षा के प्रति राज्य की जिम्मेदारी और उसके केंद्रीय महत्व की ही तस्दीक करता है।
प्रस्तावित नीति के तहत शिक्षा के अधिकार का महत्व और गहरा व व्यापक हो गया है। पहले छह से 14 वर्ष की उम्र के छात्र-छत्राएं ही इसके दायरे में आते थे, लेकिन अब तीन से 18 वर्ष की उम्र के छात्र-छात्राएं भी लाभान्वित हो सकेंगे। शिक्षा नीति व्यापक मूल्यांकन और किसी को फेल करने के प्रावधानों को जारी रखने की पक्षधर है। किसी भी तरह के दुरुपयोग और अनियमितताओं को रोकने का निर्देश देती है। प्रस्तावित नीति अल्पसंख्यक दर्जे का हवाला देकर शिक्षा के अधिकार से रियायत लेने, छात्रों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने, छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठीाूमि की गलत जानकारी देने की मनाही करती है। पिछले अनुभवों के आधार पर नई शिक्षा नीति शिक्षा के अधिकार को विकसित करने का आह्वान करती है। नीति के अनेक हिस्सों में भारत और भारतीय एकीकृत हैं। इनमें से कुछ विषय है- भारतीय भाषाएं, भारतीय साहित्य, भारतीय कला, भारतीय संगीत और भारतीय ज्ञान व्यवस्था, भारतीय इतिहास और संदर्भ इत्यादि। इसके अलावा और क्या हो सकता था? आखिरकार, यह भारत की शिक्षा नीति है, लेकिन यह नीति विश्व की नजरअंदाज करने की कीमत पर ऐसा नहीं करती है। पर हमारे अपने समाज को जानने, समझने और उसे महत्व देने की जायज प्रतिबद्धता से बढ़कर कुछ भी नही है।
शिक्षा नीति में शिक्षा व्यवस्था के विनियमन और प्रशासन को बदल देने की दृष्टि है। इस बदलाव के रेखांकित करने योग्य मुख्य पक्ष है, पारदर्शी जन घोषणा, अधिकतम सशक्तिकरण और संस्थानों की स्वायत्तता। इसके अलावा यह नीति का बंटवारा, नियमन की शक्ति, क्रियान्वयन, स्तरीकरण इत्यादि भी तय करती है। स्कूली शिक्षा का संचालन नई बनी अर्द्ध-न्यायिक स्टेट स्कूल रेगुलेटरी अथारिटी के जरिए होगा। यही स्कूल व्यवस्था के संचालन और विकास के लिए जिम्मेदार होगी। ब्लाॅक शिक्षा अधिकार को विनियमन के अधिकार नहीं होंगे, ये अधिकारी केवल स्कूलों को चलाने और विकसित करने के लिए जिम्मेदार होंगे। मान्यता प्रणाली सशक्तिकरण करेगी, जिसमें स्थानीय संस्थानों, स्कूल प्रबंधन और पंचायतों की भूमिका होंगी।
मुझे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विकास को व्यापक दृष्टि से देखने का मौका मिला है। यह मुझे विश्वास दिलाता है कि शिक्षा नीति के मसौदे को समृद्ध किया जाएगा। कुछ प्रतिक्रियाएं संदेह भी पैदा करता है। किसी भी नीति का अंतिम परीक्षण उसके क्रियान्वयन में है। नकारात्मक निर्णयों और संदेहों से परे शिक्षा नीति आशावाद के लिए पर्याप्त ऊर्जा प्रदान करती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक - अनुराग बेहार, सीईओ, अजीज प्रेमजी फाउंडेशन
साभार - हिन्दुस्तान
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