शिक्षा का अधिकार कानून पारित होने के ठीक पहले हुई जनगणना के आकडों नें भारतीय शिक्षा व्यवस्था के स्याह पक्ष को सामने ला दिया। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में तब भी आठ करोड 40 लाख बच्चे ऐसे थे, जो स्कूल नहीं जा रहें थे। इनमें 78 लाख तो ऐसे थे, जिन्हें जबरदस्ती काम पर भेजा जा रहा था। बेशक ये बच्चे काम पर जाने के लिए मजबूर किए जाते हों, पर ज्यादातर मामलों में यह मजबूरी उनके परिवार की ही है, जो रोजाना खर्च के लिए दस-बीस रूपये जुटानें के चक्कर में अपने बच्चों को शिक्षा से ज्यादा कमाई पर जोर देते है। आमतौर पर माना जाता है कि इज्जत आदि के चक्कर में गुरबत में जी रहें लोग भी अपनी बच्चियों की तुलना में बेंटो को ही काम पर भेजना ज्यादा पंसद करते हैं। जनगणना के आकंडों ने इस सोच को भी चैंकाया। पढने-लिखने और खेलने-कूदने की उम्र में जिन बच्चों को जबर्दस्ती काम करने को मजबूर होना पडता है, उनमें से 53 प्रतिशत लडकंे हैं, इनमें थोडी ही कम संख्या यानी 47 प्रतिशत लडकियों की है। अगर देश में काम करने वालों की जमात को देखें, तो यह आंकडा और भी चैंकाता है। देश में कुल कामगार जमात में सिर्फ 27 प्रतिशत ही महिलाएं हैं उनकी तुलना में स्कूल जाने की उम्र वाली बच्चियों की जिंदगी उम्रदार महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन और जलालतभरी हैं। जिस समय यह आंकडा सामने आया, उन्हीं दिनों यह भी खबर आई कि दुनिया के दो सौ प्रतिष्ठित और बेहतरीन विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। शीर्ष 250 विश्वविद्यालयों की सूची में बंगलूरू का भारतीय विज्ञान संस्थान ही है। हलांकि दुनिया के शीर्ष 980 विश्वविद्यालयों में भारत के कई आईआईटी नें स्थान बनाया है। सवाल यह है कि आजादी के करीब सात दशक में हम वैश्विक स्तर का शैक्षिक तंत्र क्यों नहीं बना पाएं। बच्चों का स्कूल ना जाना या जबर्दस्ती काम पर भेजा जाना और दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का नाम नहीं होना निश्चित तौर पर चिंतनीय हैं। इसकी दो प्रमुख वजहें है, एक तो यह कि आजादी के इतने वर्षो में हम गरीबी को दूर नहीं कर पाए है। सविंधान नें योग्यता और समानता के सिद्धान्त को स्वीकार तो किया है, लेकिन उसे मानसिक आधार हम अब तक नहीं दें पाए हैं अैार नियुक्तियो से लेकर शिक्षावृतियों तक में हमारी व्यवस्था नें योग्यता के बजाय जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद को ज्यादा तरजीह दी। हम आर्थिक मजबूरियों के चलते सकल घरेलू उत्पाद का बडा हिस्सा शिक्षा पर खर्च नहीं कर पा रहें। ब्रिटेन अपनी जीडीपी का 5.72 फीसदी जहां शिक्षा पर खर्च करता हैं, वहीं अमेरिका 5.22 फीसदी तो जर्मनी जैसा देश 4.95 फीसदी खर्च करता हैं। जरा हम अपने खर्च पर ध्यान दें। हम लाख कोशिशों और शिक्षा का अधिकार कानून पारित करने के बावजूद जीडीपी का केवल 3.83 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहें हैं। इसकी जड हमारी शिक्षा का सरकारीकरण भी है। समाज नें शिक्षा को लेकर मानवीय और सामाजिक जिम्मेदारी का भाव त्याग दिया। पहले पैसे वाले लोग निःशुल्क स्कूली शिक्षा और दवाखानों का इंतजाम करते थे। 1905 में शिक्षा के सरकारीकरण के पहले पूरी शैक्षिक व्यव्स्था समाज के पास थी। तब शिक्षा और दवाखाने को पैसे कमाने का जरिया नहीं माना जाता था। हम अपनी ताकत का जितना चाहें प्रदर्शन कर लें, बिना सभी बच्चों को स्कूल भेजे और उच्च स्तरीय शिक्षा व्यवस्था बनाए हम वैश्विक ताकत शायद ही बन पाएं।
लेखक - उमेश चतुर्वेदी
साभार - अमर उजाला
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