पूर्णांक के बराबर और उसके करीब छात्रों को प्राप्तांक दिलाने वाले शिक्षा के इस युग में सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा है मगर अब यह अंकों की बरसात लोगों के चेहरों पर चिंता की लकीरें खीच रही है। क्या हमारी मूल्यांकन व्यवस्था बच्चों की शैक्षिक प्रगति कर सही आकलन कर पा रही है? बोर्ड की कक्षा 12 के बाद अधिकांश विधार्थी व्यावसायिका पाठ्क्रमों के संस्थानों में प्रवेश परीक्षाएं देते है। आगे चलकर वे लोक सेवा आयोग या अन्य संस्थानों द्वारा नौकरी के लिए आयोजित परीक्षाओं में बैठते है। देखा यह गया है कि सीबीएसई में सामान्यतः 40-45 फीसद के आस-पास आ जाय। वा बाद में लोकसेवा आयोग में 30-35 फीसद पर अटक जाय तो किसी को आश्चर्य नहीं होता है। यह स्पष्ट है कि युवाओं की प्रतिभा और व्यक्तिव विकास के सही आकलन मे विभिन्न संस्थानों की पद्धतियों में कोई ताल-मेल नहीं है। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि क्या बोर्ड परीक्षा में दिखाई जा रही दरियादली बच्चे में आगे चलकर हीनभावना नहीं पैदा देती होगी, उसके आत्मविश्वास को डिगाती नहीं होगी?
बोर्ड परीक्षा प्राप्तांकों में यह क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ कैसे और क्यों ? 1990-91 में बच्चों पर बस्ते के बोझ को लेकर मालगुड़ी डेज वाले प्रसिद्ध लेखक आरके नारायण ने राज्य सभा में एक मार्मिक भाषण दिया। सरकार ने तुरंत एक समिति प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित की। उसने संस्तुतियां दी। सफल शिक्षा व्यवस्थाएं वहीं होती है जो अपनी गतिशीलता के लिए जानी जाती है। इसके साथ ही यह भी सही है कि हर शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन का कठिन प्रतिरोध करती है। वही हुआ, कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हो सका, मगर राजनेता और नौकरशाही ने अपने ढंग से वे कार्य किये जो उनके अनुसार बच्चों पर पठ्यक्र और परीक्षा के बोझ को कम कर देंगे। आंतरिक मूल्यांकन का प्रावधन, वस्तुनिष्ट, छोटे उत्तर वाले प्रश्न, एक पैरा वाले उत्तरों में कोर शब्दों की उपस्थिति पर पूर्ण अंक देना; इत्यादि। बच्चों के प्राप्तांक बढने लगे। याददाशत पर जोर बढ़ गया। कोचिंग, ट्यूशन का बाजार सजग हो गया। माना जाने लगा कि कुछ और किताबें, और अच्छे नंबर! बोर्डों में एक प्रतिस्पर्धा बनी। हर एक ने उदारता में दूसरे को पीछे छोड़ना ही सही माना। हर मंत्री के लिए (राज्य के बोर्ड के अध्यक्ष मंत्री जी ही होते है) यह आवश्यक हो गया कि उनके राज्य का पास प्रतिशत और टाॅपर के अंक तथा संख्या अन्य राज्यों तथा उनके पूर्ववर्ती से अधिक हो।
लगभग छह दशक पहले एनसीईआरटी की स्थापना इसीलिए की गई थी कि वह शिक्षा के हर पक्ष पर शोध, अध्ययन तथा सर्वेक्षणों द्वारा गतिशीलता बनाए रखे। बच्चों के अधिगम स्तर का आकलन करने के लिए मूल्यांकन और मापन व्यवस्था में उचित परिवर्तन करती रहें। उसे न केवल देश के हर बोर्ड से समन्वय रखना था बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे परिवर्तनों से भी संपर्क रखना था। एनसीईआरटी ने इसमें नाम कमाया। उसके मूल्यांकन विभाग की विशेषता की साख देश और विदेश तक पहुंची। इसका एक कारण यह भी था कि उस समय शिक्षाविद ही स्कूल बोर्ड और शिक्षा संचालन का उत्तरदायित्व संभालते थे। आज स्थिति ठीक इसके विपीत है। नौकरशाही को सर्वज्ञ मान लिया गया है। उसका वर्चस्व हर तरफ छा गया है। विशेषज्ञों को नाम-पात्र के लिए जोड़ा भले ही जाय, उनकी स्थिति से सभी परिचित है। मूल्यांकन जैसे तकनीकी विषय में मनोविज्ञान, न्यूरी-साइंसेस जैसे अनेक विषयों के साथ सामजिक, सांस्कृर्तिक पक्षों की समझ की गहन पैठ भी आवश्यक है जो नौकरशाहों के बस की बात नहीं है। देश में शैक्षिक नेतृत्व को बढ़ावा देने पर त्वरित ध्यान देना आवश्यक है। तत्काल जों कदम उठाये जाने चाहिए उसमें एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाय, जो वर्तमान स्थिति की असहजता से निकलने के तरीके बताये। नए पाठ्यक्रम का निर्माण 2005 के बाद नही हुआ है, उसे तुरंत प्रारंभ कर उसके आधार पर नई पाठ्य-पुस्तकें बनें। मूल्यांकन का नया तरीकार अपनाया जाए। भारतीय शिक्षा दर्शन के आधार पर व्यक्ति के विकास के मापदंड तैयार करने होंगे। यह कार्य वे विशेषज्ञ तथा अध्यापक मिल कर कर सकते हैं जो गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के इस दर्शन से परिचित हों कि विचार की शक्ति और कल्पना की शक्ति के दो वरदान हर बच्चे को मिले हैं और इन्हें किसी भी हालत में कुंद नही किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से आज की परीक्षा प्रणाली यही कर रही है। बच्चों की प्रतिभा और रुचि की वही अध्यापक समझ सकता है जो जानता हो कि प्रकृति से बड़ा कोई अध्यापक नहीं है (टैगोर), और कुछ भी पढ़ाया नहीं जा सकता है’ (श्री अरबिंदो)। सारा ज्ञान व्याक्ति के अंतरतम में होता है, उसे खोजने का काम भी व्यक्ति स्वयं करता है, बाकि सब इसमें केवल सहायता कर सकते है। आज की स्थिति के विकसित होने का कारण शिक्षा का भारत की ज्ञान परंपरा से दूर हो जाना भी है। हम ‘अध्ययन, मनन, चिंतन और उपयोग’ के चार महत्वपूर्ण सोपानों को भूल गए है। हम प्रश्न-प्रतिप्रश्न-परिप्रश्न’ की तिकड़ी को कभी समझने का प्रयास नहीं करते है। हम केवल मस्तिष्क को प्रगति तक सीमित हो गए है, हाथ और हृदय को भूल गए है। नए सिरे से विचार कर शिक्षा को नया कलेवर देना ही होगा, कोई अन्य विकल्प नहीं है।
लेखक - जगमोहन सिंह राजपूत, पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी
साभार जागरण
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