पिछले सप्ताह में मुंबई में था। एक स्काॅलरशिप के लिए देश के प्रतिष्ठित स्कूलों के बेहतरीन बच्चों का इंटरव्यू लेने की खातिर मुझे बुलाया गया था। मेरे साथ इंटरव्यू-बोर्ड मे दो और सदस्य थे। उनमें से एक मशहूर वैश्विक कन्सल्टिंग के चैयरमैन थे, तो बोर्ड के दूसरे सदस्य और मैंनेे इंजीनियरिंग की पढाई साथ-साथ की है। यह अलग बात है कि उसनें टाॅप किया था और मेरा प्रदर्शन अपेक्षाकृत बीच का रहा।
बहरहाल, दिन भर में 37 छात्रों का इंटरव्यू मुझे सीख भरे अनुभव दे गया। वह पूरी कयावद थकाने वाली तो थी, मगर उबाऊ नहीं थी। हमने हर छात्र कें साथ करीब 15-20 मिनट बिताए। बेशक उन छात्रों में से कुछ के लिए यह समय काफी न रहा हो, मगर हमारे लिए इतना वक्त देश में सामाजिक, कारोबारी, मानसिक और व्यवहार के स्तर पर हो रहें बदलावेां के बारे में उनकें नजरीए को परखने के लिए पर्याप्त था।
इंटरव्यू देने वाले अलग-अलग किस्म के छात्र थे, मेरी उम्मीद से भी कहीं ज्यादा। होते भी क्यों नहीं, आखिर इन्हें भारतीय प्रबंधन संस्थानों एक्सएलआरआई और फैक्लटी आॅफ मैनेजमेंट स्टडीज के श्रेष्ठ 20 फीसदी छात्रों (दाखिले के अनुसार) में चुना गया था। एक समय था जब ऐसे बिजनेस स्कूलों में पहुंचने वाले बच्चे समान होते थे। वास्तव में उनका अकादमिक ज्ञान एक समान होता था, जिसे वे बहुत गंभीरता से नहीं लेते।
इंटरव्यू मे आई दो लडकियां लिंगानुपात के मामले में देश के बदहाल राज्य हरियाणा के छोटे शहरों से थी। ये ऐसे परिवारेंा की बच्चियां थी, जो महिलाओं को शिक्षित करने में परंपरागत रूप से विश्वास नहीं करता। हम जितने भी छात्रों से मिले, उनमें से कम से कम एक तिहाई दूसरे या तीसरे दर्जे में गिने जाने वाले शहरांे, यानि छोटे शहरों के बच्चे थे। इनकी पृष्ठभूमि काफी साधारण थी। एक किराना सामान बेचने वाले का बेटा था, तो दूसरा अपने परिवार से पहला ग्रेजुएट। दो बच्चों की पढाई-लिखाई तो ऐसे स्कूल में हूई थी, जहां अंग्रेजी की पढाई दसवीं कक्षा मंे आकर शुरू हुई थी। सरकारी स्कूलों में बच्चों की तादाद भी कम नही थी।
यकीनन, विकास की राह पर हमारे निरंतर आगे बढने के ये सबूत हैं, जो आज भारत की विशेषता है। इनमें से ज्यादा तर बच्चें एक दशक पहले उस मुकाम की बात सोच भी नहीं पाते, जहां आज वे खडे है।
जैसा कि आमतौर पर होता है, छात्रों के उस ग्रुप में कई इंजीनियर थे। और मैं तो ये हमेशा यह कहता रहता हूं कि ये इंजीनियर ही हैं, जो दुनिया पर राज करते है! खैर, इनमें से कई इंजीनियरों ने ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद काम-धंघा शुरू कर दिया था। दिलचस्प यह था कि ज्यादातर नेे हार्डवेयर और सेमीकंडक्टर कंपनियों में काम किया था। सिर्फ एक इंजीनियर मुझे ऐसा मिला, जिसनें साॅफ्टवेयर सर्विस कंपनी में काम किया था। जाहिर हैं, जब श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली बच्चें इस मुल्क में रहने को फैसला कर लें, तो फिर इस तरह की कंपनियों में उनके लिए ज्यादा काम ही कहां है?
उन तमाम छात्रों में से कई ऐसे थे, जिनके पास काम कर अनुभव था अैर वे अच्छी-खासी कंपनियों के साथ काम छोड चुके थे। ये बिजनेस स्कूल में दाखिलें से पहले कुछ समय के लिए स्टार्ट-अप के लिए भी काम कर चुके थे। कुछ ने अपना स्वंय का स्टार्ट-अप शुरू कर लिया था। एक तो बिजनेस स्कूल के दरम्यान भी अपना स्टार्ट-अप चलाता रहा। इन 37उम्मीदवारों में से ज्यादा नें कहा कि वे इससे बेहतर कुछ करना चाहते है, हलांकि कई का कहना था कि ऐसा करने से पहले वे कई वर्षो तक किसी वैश्विक कन्सल्टिंग कंपनी के साथ काम करने के इच्छुक हैं। यह नजरिया बताता है कि भारत में स्टार्ट-अप को लेकर जो लहर है, वह आगे भी बनी रहेंगी। नैस्काॅम की 2015 की रिपोर्ट भी कहती है कि स्टार्ट-अप के मामले में हम दुनिया में तीसरे सबसे बडें देश है। यहां 4,200 के करीब स्टार्ट-अप कंपनीयां हैं।
इन युवक-युवतियों ने सामाजिक व विकासपरक कार्यो में अपनी भागीदारी के बारे में भी हमें बताया। हलांकि अपनी योग्यता साबित करने के लिए रिज्यूमे मंे ऐसी कुछ अतिरंजित जानकारियां दी जाती है, जो ज्यादातर इंटरव्यू में होता है। मगर यदि इनकें काम को परखें, तो समाज को लेकर उनकी कुछ चिंताएं और उपलब्धियां वास्तविक दिखी।
बावजूद इसकें वहां सब कुछ अच्छा नहीं था। बेशक इंटरव्यू में शामिल कई युवाओं का रूझान शिक्षा से इतर भी था, मगर उनमें से कोई समसायमिक मामलों से बेखबर या यूं कहें कि अनजान थे। बिजनेस स्कूल के छात्र होते हुए भी उन्हें मौजुदा आर्थिक विकास और नजरिए की बहुुत मामूली जानकारी थी। कई नें माना कि वे अखबार, न्यूज वेबसाइट, पत्र-पत्रिकाएं, या कथेतर साहित्य नहीं पढते । जिन कुछ उम्मीदवारों नें माना कि वे उपन्यास पढते है, वे भी कुछ सवालों पर बगले झांकते रहें। मसलन, कविता में रूची दिखाने वाले को आयरिश कवि डब्ल्यू बी यीट्स की द सकेंड कमिंग के बारे में कुछ भी पता नहीं था। इसी कविता की एक चर्चित पंक्ति है- थिंग्स फाॅल अपार्ट, द सेंटर कैननाॅट होल्ड। इसी तरह, जापानी काॅमिक्स मंगा को शौक से पढने वाला शख्स उसके पिता ओसामु तेजुका के नाम तक से अनभिज्ञ था। शायद रिज्यूमे में ऐसी ही तमाम अतिरंजित जानकारियां रहीं हों।
फिर भी इसे कोई बहुत बडा मसला नहीं कहेंगे। इन 37 बच्चों से मुलाकात के बाद एक ऐसे युवा भारत की तस्वीर उभर कर सामने आई, जो जल्द ही मैकाले के अभिशाप से मुक्त हो सकता हैं। ऐसा इसलिए की कई उम्मीदवार अंग्रेजी बोलने में दक्ष नहीं थे, जबकि यहां पहुंचा हर छात्र मुखर था। अच्छी बात यह भी थी कि ये पारंपरिक करियर विकल्पों की जकडन से मुक्त और समाज में अपना योगदान देने को उत्सुक थे।
हर पीढी यही सोचती है कि वह अपने से पहले और आने वाली पीढी कह तुलना में ज्यादा होशियार है। मुबंई की इस यात्रा के बाद मैं अब अपनी पीढी के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूं।
लेखक - आर सुकुमार
साभार - हिन्दुस्तान
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