उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा बोर्ड के इस साल के नतीजे आंकड़ों के लिहाज से उत्साहजनक जरूर दिख रहे हैं, लेकिन कई अहम सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं। खासकर, शहरी क्षेत्र के स्कूलों की परफॉरमेंस में अपेक्षित सुधार न आने की पहेली नहीं सुलझ पा रही है। ओवरऑल नतीजों को देखें तो पिछले साल की तुलना में इंटर और हाईस्कूल दोनों ही कक्षाओं का परिणाम एक से पौने दो फीसद तक बढ़ा है। हालांकि ये आशातीत नहीं है पर संतोष करने जैसी मानी जा सकती है। इस सबके बीच शहरी क्षेत्रों के स्कूल अब भी माथे पर बल डाल रहे हैं। इनकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। न केवल मेरिट में, बल्कि सामान्य उत्तीर्ण प्रतिशत में भी ये फिसड्डी रहे हैं। प्रदेश के जिन तीन सुगम जिलों देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर में तैनाती पाने के लिए शिक्षक लालायित रहते हैं और इसके लिए हर हथकंडा अपनाते आए हैं, वही परीक्षाफल में सबसे ज्यादा पिछड़े हैं। इसके उलट विषम परिस्थितियों वाले जिलों का उत्कृष्ट प्रदर्शन सिस्टम को आईना दिखा रहा है। चंपावत जैसे दुर्गम जिले का उत्तीर्ण प्रतिशत 92 के पार है, जबकि सुगम श्रेणी के तीन जिलों में यह आंकड़ा 70 के आसपास ही अटक कर रह गया है। सरप्लस शिक्षक और तमाम संसाधनों के बावजूद यह स्थिति सोचने को विवश कर ही है कि आखिर ऐसा क्यों। सवाल उठ रहे हैं कि क्या शिक्षकों में केवल शहरी स्कूलों में आने की होड़ है, अपने दायित्वों के प्रति सजगता नहीं। अगर ऐसा नहीं तो वो कौन से कारक हैं, जिनकी वजह से शहरी क्षेत्रों के स्कूलों की परफॉरमेंस का ग्राफ ऊपर नहीं चढ़ पा रहा है, इन्हें तलाशा जाना चाहिए। राज्य सरकार ने फिर से वही राग अलापा है कि बोर्ड परीक्षाओं में कमतर प्रदर्शन करने वाले स्कूल चिह्नित कर उनके पेच कसे जाएंगे। दरअसल, ये जुमला नया नहीं है, राज्य गठन के बाद से ही यह सब कहा जा रहा है, लेकिन जिम्मेदारों के प्रति कभी कोई कड़ा कदम उठाया हो, ऐसा नहीं दिखा। इसके पीछे कारण राजनीतिक रहे हों या फिर प्रशासनिक,ये तो सरकार ही जाने, पर यह सच है कि इस प्रवृत्ति से दायित्वों के प्रति ईमानदारी न बरतने वाले शिक्षकों के हौसले बुलंद जरूर हुए हैं। यह नहीं भूलना होगा कि केवल जुबां खर्च कर शैक्षिक उन्नयन नहीं हो सकता है। इसके लिए धरातल पर गंभीरता के साथ काम करने की जरूरत है। जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों तय की जानी चाहिए। शिक्षकों को भी आत्ममंथन करना होगा कि देश के भविष्य को संवारने में अपनी भूमिका के साथ न्याय कर रहे हैं या नहीं। शिक्षा के मंदिरों से सियासत को जितना दूर रखा जाएगा, लक्ष्य तक पहुंचने में उतनी ही आसानी होगी।
साभार जागरण
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