हिंदी भाषा की स्थिति को लेकर बहस एवं विमर्श तो देश में चलते ही रहते हैं, लेकिन पिछले दिनों आए यूपी बोर्ड के दसवीं-बारहवीं के परीक्षा परिणामों ने हिंदी की हालत को लेकर न केवल एक शर्मनाक तस्वीर पेश की है, बल्कि इस विषय में हमें और अधिक गंभीरता से सोचने को विवश भी किया है। इस बार यूपी बोर्ड के दसवीं-बारहवीं में लगभग दस लाख विद्यार्थी हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए हैं। इसमें दसवीं की हंिदूी की परीक्षा में 29,50,442 छात्रों ने हिस्सा लिया, जिनमें से 80.54 फीसद यानी 23,76,335 लाख छात्र ही उत्तीर्ण हो सके, जबकि 5,74,107 यानी 19 फीसद छात्र उत्तीर्ण रहने में नाकाम रहे।
इसी तरह बारहवीं में 8,21,077 छात्रों ने हिस्सा लिया, जिसमें 6,27,630 लाख छात्र उत्तीर्ण रहे, जबकि 1,93,447 छात्र उत्तीर्ण नहीं हो सके। बारहवीं की सामान्य हंिदूी की परीक्षा में 2,30,394 लाख छात्र अनुत्तीर्ण हुए हैं। इस तरह कुल मिलाकर इन दोनों परीक्षाओं में लगभग दस लाख छात्र ऐसे रहे हैं जो राजभाषा और राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप स्वीकृत हिंदी में उत्तीर्ण होने लायक अंक भी अर्जित नहीं कर सके। हालांकि पिछले साल की तुलना में यह आंकड़ा कम है, जब दसवीं तथा बारहवीं दोनों कक्षाओं में करीब 11 लाख छात्र हिंदी विषय में अनुत्तीर्ण हुए थे। इसके अलावा इस बार लगभग साढ़े चार लाख छात्र ऐसे भी रहे जिन्होंने हिंदी की परीक्षा ही छोड़ दी। अगर इनका भी आंकड़ा जोड़ दिया जाए तो हिंदी में अनुत्तीर्ण छात्रों का आंकड़ा चैदह लाख तक पहुंच जाएगा।
हिंदी का कायाकल्प करने वाले युगांतकारी लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, कथा-सम्राट प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे हिंदी के अनेक महान हस्ताक्षरों की जन्मभूमि यूपी में दस लाख छात्रों का हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना अपनी भाषा के प्रति हमारी नीयत को लेकर गंभीर सवाल खड़े करता है। यूपी बोर्ड सचिव नीना श्रीवास्तव ने कहा है कि हिंदी में इतनी बड़ी संख्या में छात्रों के असफल होने का कोई विशेष कारण नहीं हो सकता है, लेकिन इस तरह छात्रों के अनुत्तीर्ण होने के पीछे कई कारण नजर आते हैं, जिनमें एक प्रमुख कारण हिंदी के प्रति गंभीरता का अभाव होना है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी विषय को लेकर अभिभावकों और अध्यापकों से होते हुए छात्रों तक में यह मानसिकता गहरे पैठी हुई है कि यह बहुत आसान विषय है और इसके अध्ययन में बहुत अधिक समय एवं श्रम खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। इस मानसिकता के कारण न तो अध्यापक ढंग से हिंदी पढ़ाने में ध्यान देते हैं और न अभिभावक ही बच्चों को इस पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि कोई बच्चा यदि हिंदी में अधिक रूचि ले रहा हो तो उसे अभिभावकों से हिंदी के बजाय गणित आदि विषयों के जरूरी होने और उन पर जोर लगाने की नसीहत मिल जाती है। हिंदी के प्रति इस हल्की मानसिकता का परिणाम यह होता है कि बच्चा भी मान लेता है कि हिंदी पढ़ने और समझने का नहीं, बल्कि परीक्षा से एक-दो दिन पहले रटा जाने वाला विषय है, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। हिंदी विषय पर ध्यान न देने के कारण छात्र इसके अध्ययन को लेकर कोई रणनीति नहीं बना पाते। हिंदी में साहित्यिक पाठ के अलावा व्याकरण का भी एक भाग होता है, लेकिन परीक्षा के समय जल्दबाजी में छात्र अक्सर साहित्यिक पाठों के तो प्रश्नोत्तर रटकर काम चला लेते हैं, मगर व्याकरण वाले हिस्से को यथोचित समय देकर समझ नहीं पाते। इस कारण परीक्षा में व्याकरण वाले प्रश्नों का जवाब लिखना उनके लिए मुश्किल होने लगता है। हिंदी व्याकरण को लेकर छात्रों की अज्ञानता और अगंभीरता का आलम यह है कि बहुतायत छात्रों को ‘नाउन-प्रोनाउन’ तो पता होता है, मगर ‘संज्ञा-सर्वनाम’ पूछने पर बगले झांकने लगते हैं।
प्रश्न उठता है कि इस स्थिति का कारण क्या है? 1909 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘हंिदू स्वराज’ में गांधी जी ने लिखा, ‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। गांधी जी का स्पष्ट मत था कि देश की शिक्षा का माध्यम हिंदी होनी चाहिए। मगर आजाद भारत की सरकारों द्वारा जो शिक्षा नीति अपनाई गई, वह ब्रिटिश शासन से बहुत अलग नहीं थी। उसमें अंग्रेजी का प्रभुत्व कायम रहा। परिणामतरू शिक्षा क्षेत्र में भी हिंदी की स्थिति दोयम दर्जे की होती गई। आज अच्छी पढ़ाई का मतलब अंग्रेजी माना जा चुका है। देश में अंग्रेजी का प्रभाव ऐसा हो गया है कि कोई साधारण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी अंग्रेजी में चार बातें बोलकर लोगों के बीच अपना एक अलग प्रभाव बना लेता है, जबकि हिंदी बोलने वाले ज्ञानी व्यक्ति को भी वैसा महत्व नहीं मिलता। गत दिनों इंदौर के डीएवीवी विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे शुभम मालवीय नामक छात्र ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसने हिंदी माध्यम से पढ़ाई की थी और अंग्रेजी में कमजोर था। यह दिखाता है कि हिंदी को हमने किस कदर दीन-हीन बना दिया है।
सवाल उठता है कि एक हिंदी भाषी देश में हिंदी में ही हर विषय की शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त की जा सकती? तर्क दिया जाता है कि विज्ञान और अभियांत्रिकी जैसे विषयों के अध्ययन के लिए अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है, इसलिए अंग्रेजी आवश्यक है। ऐसे में सवाल उठता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी उस सामग्री का हिंदी रूपांतरण क्यों नहीं किया जा सका? जाहिर है, इस दिशा में काम करने की इच्छाशक्ति ही हमारी सरकारों में नहीं है। ऊपर से शुरू हुई यह समस्या ही नीचे तक पहुंचकर यह स्थिति उत्पन्न कर रही है कि एक हिंदी भाषी राज्य में ही दस लाख छात्र हिंदी में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
लेखक - पीयूष द्विवेदी
(स्वतंत्र टिप्पणीकार)
साभार जागरण
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