जिंदा है जज्बा

 


उत्तराखण्ड के कुछ नन्हे वैज्ञानिकों ने अपने काम से साबित किया है कि उनमें हौसले की कमी नहीं। सुविधाओं का अभाव और पहाड़ के विपरीत हालात उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। अनुकूल माहौल मिले या न मिले, वे जनहित में उपयोगी अनुसंधान करते रहेंगे।


देश के जाने-माने वैज्ञानिक भारत रत्न डॉक्टर सीएनआर राव ने पिछले वर्ष काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के शताब्दी वर्ष समारोह में ‘डूइंग साइंस इन इंडिया’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा था कि भारत में विज्ञान का भविष्य गांवों में बसता है। गांवों में एक से बढ़कर-एक प्रतिभाएं छुपी हुई हैं, जिन्हें पहचानने, निखारने और आगे बढ़ाने की जरूरत है। उत्तराखण्ड राज्य के ग्रामीण और दूर-दराज के पर्वतीय क्षेत्रों से भी विज्ञान में ऐसी प्रतिभाएं निकलीं जिन्होंने अपने काम से दुनिया को आश्चर्यचकित कर डाला। उनके काम का उल्लेख समय-समय पर प्रसंगवश करता रहा हूं। लेकिन अभी फिलहाल सीमांत पर्वतीय क्षेत्र की उन नवोदित प्रतिभाओं का जिक्र करने की इच्छा है जिनके भीतर विषम परिस्थितियों में रहने के बावजूद देश और समाज के लिए कुछ खास करने का हौसला है। जिनके इरादे जता रहे हैं कि उफनते गाड-गदेरों को पार कर और प्रतिदिन कई किलोमीटर की पैदल दूरी तय कर स्कूल पहुंचना उनके लिए कोई बाधा नहीं। स्कूलों में विज्ञान प्रयोगशालाएं हों या न हों, अनुसंधान और सृजन से उन्हें कोई नहीं रोक सकता। बात सीमांत चमोली जिले के कर्णप्रयाग ब्लॉक के जूनियर हाईस्कूल पुडियाणी की हो रही है। यहां के नन्हे बच्चों ने जो बड़ा कमाल कर दिखाया है वह वास्तव में काबिले-तारीफ है। स्कूल के पांच छात्रों ने धुआं रहित ऐसे चूल्हे का निर्माण किया है जिसमें बहुत कम लकड़ी की जरूरत होती है। इतना ही नहीं इसमें सौर ऊर्जा के उपयोग की भी व्यवस्था की गई है।


नन्हे वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान से साबित किया है कि राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में विकास की किरणों से वंचित लोगों में आज भी आगे बढ़ने का जज्बा जिंदा है। सरकार को न सिर्फ इसकी प्रशंसा करनी होगी, बल्कि इस दिशा में भी गंभीरता से विचार करना होगा कि नन्हें वैज्ञानिकों के इस आविष्कार का लाभ राज्य के हित में कैसे हो सकता है? नई प्रतिभाओं को अनुसंधान के लिए बेहतर माहौल मुहैया कराने के लिए क्या किया जा सकता है? इस संबंध में जहां तक मैं समझता हूं सरकार को चाहिए कि नन्हे वैज्ञानिकों के अविष्कार की प्रदेश और प्रदेश के बाहर भी विस्तृत प्रचार-प्रसार की व्यवस्था करे। लोगों को बताया जा सकता है कि धुआं रहित चूल्हे किस तरह उनके स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए अनुकूल हैं। राज्य में लगने वाले परंपरागत मेलों, शरदोत्सवों, विकास प्रदर्शनियों और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदान में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले ट्रेड फेयर में भी नई प्रतिभाओं के अविष्कार प्रदर्शित किए जा सकते हैं। इससे जहां लोग इन्हें अपने व्यावहारिक जीवन में अपनाने की सोच सकेंगे वहीं दूसरे बच्चों को भी कुछ करने की प्रेरणा मिलेगी। अगर इन चूल्हों की वजह से लोग जंगलों से कम लकड़ी लेते हैं, एलपीजी सिलेंडर के लिए महीनों तक इंतजार करने का झंझट खत्म हो जाता है, तो फिर इनके उपयोग में कोई हर्ज नहीं। वैसे भी विज्ञान का लाभ ग्रामीण इलाकों को मिलना ही चाहिए। मेरी राय में स्कूली बच्चों का अनुसंधान पहाड़ के लिए न सिर्फ अच्छा रहेगा, बल्कि सच तो यह है कि पहाड़ को बचाए और बसाए रखने के लिए इसी तरह के वैज्ञानिक अनुसंधानों की जरूरत है। यहां इस दिशा में सोचने की जरूरत है कि वैज्ञानिक अनुसंधान कैसे यहां के लोगों के जीवन स्तर और आर्थिक स्तर को सुधारने के साथ ही आजीविका का साधन बन पाएंगे ताकि खाली गांवों में फिर से रौनक लौट सके।


पिछले सोलह साल में राज्य के गांवों को वन संपदा और कृषि क्षेत्र में हुए अनुसंधानों का लाभ नहीं मिल सका। आम लोग आज भी अपनी जड़ी-बूटियों और परंपरागत फसलों की मेडिकल वैल्यू (औषधीय महत्व) से अनभिज्ञ हैं। जब लोगों को वैकल्पिक ऊर्जा, सामुदायिक गोबर गैस प्लांट, दुग्ध उत्पादन, कृषि, बागवानी आदि क्षेत्रों की नई जानकारियां नहीं मिलतीं तो भला वे इनका लाभ कहां से उठाएंगे। संचार के आज के युग में भी यदि गांवों को वैज्ञानिक अनुसंधानों की जानकारियां न मिलें तो ऐसे में कैसे विकास की कल्पना की जा सकती है? राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में युवाओं को ‘इंडस्ट्रियल कैमिस्ट्री’ में अनुसंधान एवं स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए जगह-जगह सचल कार्यशालाएं आयोजित की जा सकती हैं। महिलाओं की भी इसमें भागीदारी की जानी चाहिए। इसके लिए स्थानीय भाषा में भी प्रशिक्षण की व्यवस्था हो तो बेहतर रहेगा। ग्रामीण प्रतिभाओं को अनुसंधान के लिए प्रेरित करने और अनुसंधान का बेहतर माहौल बनाने के लिए सचल विज्ञान प्रयोगशलाओं का बच्चों को कुछ तो लाभ मिलेगा। विज्ञान शिक्षकों को भी इसका फायदा होगा। नई पीढ़ी में विकास का जज्बा कम नहीं है। जरूरत सिर्फ सरकार को आगे बढ़कर जज्बा दिखाने की है।


लेखक दाताराम चमोली उत्तराखण्ड में पत्रकार हैं

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