इन दिनों, आतंकी हमलों के बाद इस बात को लेकर हैरानी जताई जाती है कि दहशतगर्द ‘संपन्न और शिक्षित’ थे। शायद ही यह विश्वास किया जाता है कि सामाजिक और आर्थिक दबावों से मुक्त इंसान जान-बूझकर आत्मघाती दस्ते में शामिल होता है। इस आश्चर्य की वजह हमारा यह मिथक है कि आतंकवाद केवल अनपढ़ और गरीबी की देन है। ऐसा इसलिए, क्योंकि आतंकवाद के असली रूप को आमतौर पर गलत समझा जाता है।
आतंकवाद दरअसल युद्ध का एक औजार है। यह उतना ही मारक है, जितना कि एक परमाणु बम या नेपाम (बम बनाने वाली पेट्रोलियम जेली)। तमाम देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसे समर्थन देकर या फिर अपने कामों को उचित ठहराकर इसका इस्तेमाल करते रहे हैं। अमेरिका और सोवियत संघ ने लाखों लोगों का कत्ल उन्हें आतंकी और मुल्क का दुश्मन बताकर किया। कहते हैं कि भारत ने भी शुरू में श्रीलंका में तमिल अलगाववादियों के संघर्ष का समर्थन किया था, हालांकि बाद में उन्हीं ‘आतंकवादियोंश् के खिलाफ अपनी सेना उतारी। चीन ने भी भारत के अलगाववादी गुटों को उकसाया, पाकिस्तान तो आज भी ऐसा कर रहा है। व्यक्तिगत स्तर पर भी देखें, तो कोई इंसान एक के लिए आतंकवादी, तो दूसरे के लिए स्वतंत्रता सेनानी हो सकता है। नोबेल पुरस्कार विजेता तो हमेशा मुल्क के दुश्मन के रूप में प्रचारित किए जाते रहे हैं। नेल्सन मंडेला, आंग सान सू की, या हमारे अपने स्वतंत्रता सेनानी देशद्रोह और आतंकवाद के आरोप में जेल में डाले जा चुके हैं, जबकि उन्हीं दंड संहिताओं का इस्तेमाल करते हुए हम आज अजमल कसाब जैसे आतंकियों को फांसी देते हैं।
आतंकवाद को सभी अच्छी तरह समझते हैं, और इसीलिए इसका इस्तेमाल युद्ध के एक औजार के रूप में करते रहते हैं। और किसी भी युद्ध में सैनिकों की सबसे अधिक जरूरत होती है। आतंकवादी भी खुद को ऐसा सिपाही मानते हैं, जो एक बड़े मकसद के तहत जंग लड़ता है। पहला आत्मघाती हमलावर 13 वर्षीय ईरानी मोहम्मद हुसैन से लेकर श्रीलंका में ईस्टर के मौके पर खून बहाने वाले दहशतगर्द तक, तमाम आत्मघाती दस्ता यही मानता रहा कि वह एक युद्ध लड़ रहा है। ऐसे हमलावर किसी भी सेना के कुलीन सैनिकों की तरह होते हैं। सैनिकों को प्रशिक्षित करना या आतंकियों को, दोनों समान प्रक्रिया है। उनमें प्रेरणा जगाता है यह सवाल कि वे ‘क्योंश् यह कर रहे हैं, और सैन्य वीरता का पैमाना बनता है, ‘कैसेश् लक्ष्य पूरा है। आतंकवाद, विशेषकर आत्मघाती हमले की सफलता सैद्धांतिक तौर पर हमलावर पर निर्भर करती है, इसीलिए इस काम के लिए अतिसंवेदनशील आयु वर्गों से भर्ती की जाती है। उन्हें लुभाने के लिए जुल्म-ओ-सितम का नारा दिया जाता है और समाधान के रूप में उन्हें प्रतिशोध का रास्ता दिखाया जाता है।
ऐसी प्रेरणा पर किसी अनपढ़ या गरीब का विशेषाधिकार नहीं होता। इसके उलट, जुल्म का बदला लेने संबंधी आह्वान ने हमेशा बुद्धिजीवियों और संभ्रांत लोगों को ही आकर्षित किया है। अपवादों को छोड़ दें, तो हर आतंकी गुट का सरगना अच्छा पढ़ा-लिखा और धनाढ्य रहा हैै। हां, गरीब और सताए हुए लोग भी आतंकवाद का सहारा लेते है, मगर तब, जब उनके अस्तित्व या पहचान पर खतरा पैदा होता है। लेकिन वे तब आमतौर पर खंडित उद्देश्य के साथ लिट्टे, माओवादी या उल्फा जैसा आंदोलन करेंगे। जबकि वैश्विक महत्वाकांक्षा वाले गुटों के लिए जरूरी है कि उनमें ‘क्षेत्रीयश् विवादों की बजाय वैश्विक अपील हो।
आज अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है। 26ध्11 के मुंबई हमलों में एक अत्यधिक घातक मॉडल सामने आया था। उसमें संसाधनों और योजना पर काम शीर्ष स्तर पर किया ’गया, जबकि उसे अंजाम दिया गया अच्छी तरह प्रशिक्षित, लेकिन ‘मूर्ख सैनिकोंश् द्वारा। मगर अब हमलावरों की’नई फसल ने बुद्धिमता और संसाधनों को अंग्रिम पंक्ति तक ला दिया है। आने वाले दिनों में वे न केवल अधिक शिक्षित और संपन्न होते जाएंगे, बल्कि कहीं अधिक जानलेवा भी साबित होंगे। उनके खिलाफ हमें तभी जीत मिल सकती है, जब हम आतंकवाद को परिभाषित करने, समझने और उसके खिलाफ लड़ने के अपने रवैये में बुनियादी बदलाव लाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक - रघु रमन
सीईओ, नैटग्रिड
साभार हिन्दुस्तान
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