छलांग मारते परीक्षाफल के मायने

परीक्षाफलों की घोषणाओं का सीजन है। सीबीएसई ने 2 मई को 12वीं कक्षा के जो नतीजे घोषित किए हैं, उनमें 83.4 प्रतिशत परीक्षार्थी उत्तीर्ण हुए हैं। इनमें से 95,000 विद्यार्थियों ने 90 प्रतिशत या उससे अधिक और 17,693 विद्यार्थियों ने 95 प्रतिशत या उससे अधिक अंक हासिल किए हैं। इस परीक्षा में दो लड़कियों- हंसिका शुक्ला और करिश्मा अरोड़ा ने कुल 500 में से 499 अंक प्राप्त करके समूचे देश में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। देश के कुछ खास इलाकों के बच्चों का परीक्षाफल राष्ट्रीय औसत से ऊंचा रहा है। तिरुवनंतपुरम क्षेत्र का नतीजा 98.2 प्रतिशत, चेन्नई क्षेत्र का 92़.9 प्रतिशत और दिल्ली का 91.9 प्रतिशत रहा। इसी तरह सीबीएसई की 10वीं कक्षा के नतीजों में भी अंकों की वर्षा हुई। इस साल 91़1 प्रतिशत परीक्षार्थी पास हुए, जबकि पिछले साल यह प्रतिशत 86.7 ही था। इस परीक्षा में 13 विद्यार्थियों ने कुल 500 प्राप्तांकों में से 499 अंक हासिल किए हैं। 25 विद्यार्थियों को 498 और 59 विद्यार्थियों को 497 अंक हासिल हुएहैं। .


इन नतीजों से हर कोई उत्साहित है, क्योंकि देश के नौनिहाल पढ़ाई-लिखाई में आकाश को चूमते हुए दिख रहे हैं। इसका श्रेय बच्चों, उनके माता-पिता और शिक्षकों को दिया जाना चाहिए। सीबीएसई और अन्य स्कूली शिक्षा बोर्डों की वार्षिक परीक्षाओं में अंकों की वर्षा पिछले कुछ दशकों में लगातार बढ़ती रही है। कुछ दशक पूर्व 85 से 90 प्रतिशत अंक हासिल कर बच्चे टॉपर बन जाते थे, जो आज असंभव है। अंकों की बढ़ोतरी के कई कारण हैं, जिनमें एक प्रमुख कारण है- भारतीय मध्यवर्ग में शिक्षा के माध्यम से संपन्नता और खुशहाली हासिल करने के प्रति बढ़ता हुआ आत्मविश्वास। साल 1991 से पूर्व आर्थिक रूप से संपन्न होना उद्योगपतियों, व्यवसायियों, राजनेताओं और कुलक वर्ग के लिए ही मुमकिन था। उदारीकरण के दौर में भारतीय और विदेशी कंपनियों में मध्यवर्गीय युवाओं के एक बड़े वर्ग को मोटी तनख्वाह पर नौकरियां मिलने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी रफ्तार साल 2008 में आई विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के दौरान ही जाकर धीमी हुई।


पिछले 60 वर्षों में आईआईएम, आईआईटी और एनआईटी से निकले लाखों प्रतिभाशाली युवा देश से पलायन करके अमेरिका, कनाडा, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जाकर बस गए। अमेरिका की सिलीकॉन वैली में बसे हुए अनेक भारतीय अब अरबपति और खरबपति की श्रेणी में आ चुके हैं। वे सभी किसी नामचीन संस्थान से ग्रेजुएट हैं और उन संस्थानों में दाखिले का मुख्य आधार 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में उनकी ऊंची मेरिट रही होगी। यह भी संभव है कि विदेश जाकर बसे हुए आईटी उद्यमियों अथवा प्रोफेशनलों में से ज्यादातर केंद्रीय विद्यालयों के विद्यार्थी रहे होंगे या 12वीं में सीबीएसई बोर्ड के परीक्षार्थी रहे होंगे। सीबीएसई बोर्ड और केंद्रीय विद्यालय, दोनों संस्थाएं भारत की स्कूली शिक्षा के ऐसे चमकते सितारे हैं, जिन्हें भारतीय मध्यवर्ग ने जीवन में अपने सुनहरे सपनों को साकार बनाने का एक सबल और सुगम माध्यम बना लिया है।


बोर्ड परीक्षाओं में प्राप्तांकों की बरसात का एक और प्रमुख कारण स्कूली शिक्षकों, ट्यूटरों, अभिभावकों और खुद बच्चों द्वारा कठिन अभ्यास से उस फॉर्मूले को विकसित करना भी है, जिससे अच्छे नंबर हासिल किए जा सकते हैं। सीबीएसई की 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं का एक खास पैटर्न होता है, जिसे पहचानने के लिए शिक्षकों, ट्यूटरों और स्कूलों की खोजबीन चलती रहती है। 11वीं में प्रवेश पाते ही बच्चों को इस ढंग से पढ़ाया जाता है कि वे ऊंचे स्कोर ला सकें। उन्हें खासतौर से परीक्षा-प्रश्नों के उत्तर देने का एक खास तरीका भी सिखाया जाता है, जिसमें बच्चों को हर विषय में महत्वपूर्ण बातों को समझना और फिर निरंतर अभ्यास करके उसे अपनी याद्दाशत का हिस्सा बनाना होता है। अच्छे अंक हासिल करने के इन नुस्खों को अब बच्चों के मां-बाप भी सीखने लगे हैं, क्योंकि घर पर उन्हें यह देखना होता है कि उनका बेटा या बेटी, उन नुस्खों पर लगातार अभ्यास कर रहे हैं या नहीं।


यूं तो देश के सभी माध्यमिक शिक्षा बोर्डों में हर साल प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के प्राप्तांक लगातार बढ़ते देखे गए हैं, किंतु सीबीएसई और आईसीएसई बोर्डों में यह प्रवृत्ति काफी प्रबल है। इन दोनों बोर्डों के अलावा अन्य राज्य स्तरीय बोर्डों में असफल विद्यार्थियों का प्रतिशत अधिक होता है। हाल में घोषित तेलंगाना राज्य बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में तो लगभग एक तिहाई विद्यार्थी फेल हो गए और करीब 25 विफल विद्यार्थिर्यों ने इससे दुखी होकर आत्महत्या भी कर ली। केंद्रीय और राज्य बोर्डों के नतीजों में भारी फर्क का कारण परीक्षा देने वालों की आर्थिक-सामाजिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि में भारी अंतर भी है।


बोर्ड परीक्षाओं में देश के लाखों बच्चों के 90 प्रतिशत से ऊपर अंक आने से हमारी स्कूली शिक्षा की जमीनी सच्चाइयां नहीं छिप सकतीं। सीबीएसई की परीक्षाओं में 500 में से 499 अंक पाने वाले बच्चों के चमचमाते चेहरे टीवी स्क्रीन और समाचार पत्रों के मुखपृष्ठों पर भले ही दिखाई दें, लेकिन यह मानना मुश्किल होगा कि परीक्षा के सभी विषयों में उनकी सिद्धहस्तता का स्तर ‘परफेक्शनश् के बराबर है। यह माना जाता रहा है कि स्कूल स्तर पर पढ़ाई-लिखाई को आनंदपूर्ण, रचनात्मक, विश्लेषणात्मक और सहभागी बनाने की जरूरत है, जिससे कि हमारे बच्चों में सोचने की क्षमता विकसित की जा सके। यहां यह सवाल उठना ही चाहिए कि बोर्ड परीक्षाओं में क्या बच्चों के भविष्य के लिए जरूरी इन क्षमताओं का सही-सही मूल्यांकन हो पाता है या नहीं।


अगले कुछ वर्षों में 12वीं पास करने वाले ये बच्चे रोजगार के बाजार में प्रवेश करेंगे। यह ठीक है कि इनमें से बहुत अच्छे स्कोर प्राप्त करने वाले युवाओं के हाथों में एक नामचीन कॉलेज या यूनिवर्सिटी की डिग्री होगी, जो उन्हें मोटी सैलरी पर कोई अच्छी नौकरी जरूर हासिल करा पाएगी। किंतु क्या ये युवा अपने निजी जीवन और करियर में उन चुनौतियों का सामना कर पाएंगे, जो चैथी औद्योगिक क्रांति पैदा कर चुकी है?


वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का कहना है कि सारी दुनिया में आज जितनी नौकरियां उपलब्ध हैं, उनका 57 प्रतिशत साल 2030 तक खत्म होने की आशंका है। और 2030 में जो कुल नौकरियां उपलब्ध होंगी, उनका 20 प्रतिशत अभी मौजूद नहीं है। इसका नतीजा है कि अगले 20-25 वर्षों में नौकरियों के लिए आवश्यक ‘कौशल सूचीश् हर तीन से पांच वर्ष में बदलती रहेगी। हम एक बहुत बड़े विश्वव्यापी बदलाव की ओर बढ़ रहे हैं। क्या इतनी उदारता से अंक बांट रही हमारी स्कूली शिक्षा इस बड़े बदलाव का मुकाबला करने की विद्या और हुनर भी हमारे बच्चों को दे पाएगी?


(ये लेखक के अपने विचार हैं)


लेखक - हरिवंश चतुर्वेदी
डायरेक्टर, बिमटेक
साभार हिन्दुस्तान

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