हिंदी में उच्चतर अध्यनयन स्थिति व संभावनाएं


राष्ट्रीय संचेतना की आधारशिला एंव कालजयी भाषा हिंदी के प्रति उपर्युक्त भाव वैश्विक पलक पर उसके महात्म्य का दिग्दर्शन कराता है। भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति की अस्मिता को संपूर्णता से अभिमंडित करने हेतु अगर किसी भाषा की सŸाा एंव महŸाा निर्विवाद है, तो वह है- पूरे विश्व को पिरोने की क्षमता रखने वाली हम सब भी भाषा ’हिंदी’। सूचना क्रांति के इस दौर में बढते कम्प्यूटीकरण को देखते हुए कम्प्यूटर पर हिंदी में कार्य करने की सुविधा को बढावा प्रदान करने हेतु 20 जून 2005 को सूचना एंव प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिष्ठान ’सी डैक’ नें निःशुल्क हिंदी साॅफ्टवेयर जारी किया हैं। जिसमें 525 फांट्स, वेब ब्राउजर, ईमेल, ओ.सी.आर, हिंदी शब्द कोश, ट्रांसलिट्रेशन उपकरण, वर्ड प्रोसेसर, लेखवाणी, सिस्टम तथा टाइपिंग ट्यूटर आदि अनेक सुबिधांए उपलब्ध हैं।
    इतना ही नहीं विदेशों में ’इंडिया स्टडी सेंटर ’ खुले है। इन केन्द्रों में भारतीय धर्म, संस्कृति तथा इतिहास पर शोध कार्य हो रहे है। प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों में जर्मन और फ्रेंच जैसी भाषाओं के साथ विदेशी भाषा के रूप में हिंदी पढाई जा रही है जो उनके वैश्विक आभा की सूचक है। विदेशों में हिंदी के प्रति अनुराग बढता ही जा रहा है। वहां लगभग सौ से भी अधिक ऐसे विश्वविद्यालय है, जहां छात्रों को विधिवत व्यवस्थित तरीके से हिंदी पढाई जा रही है। जर्मनी तथा लंदन के कई विद्वान हिंदी में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। इटली के एक विश्वविद्यालय में लगभग 78 छात्र/छात्राएं एम.ए. करके हिंदी का परचम लहरा रहे है। कहानियां, कविताओं, निबंधो, स्मरणों तथा अन्य विधाओं का लेखन, सजृन की कसौटी पर खरा उतर रहा हैं। इन समस्त विधाओं के द्वारा हिंदी को जीवंत तथा अधुनातन अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में स्थापित करने का सार्थक प्रयास हो रहा है, किन्तु इन समस्त यथार्थाताओं के साथ अत्यंत दुखद सत्य है कि हमारे यहां अर्थात भारत में अंग्रेजी के प्रति अनुराग बढता जा रहा है। जिसका एक मात्र कारण है कि लोगों के अंदर यह कूट-कूट कर भर दिया गया है कि अंग्रेजी के द्वारा ही उनका विकास संभव हैं।
    यह सुनिश्चित है कि जिस दिन हम अपने बच्चों का प्रवेश अंग्रेजी स्कूल में करा देते है, उसी दिन से मानो हम अपनी मां, मिट्टी तथा अपनी भाषा के सारे कवच छीन लेते है और बच्चा जीवन संग्राम पर पैर रखते ही बंदी बना लिया जाता हैं।
    उच्च्तर अध्ययन में तो आज हिंदी की स्थिति और भी नाजुक हो गई हैं। मैं उच्चतर शिक्षा से ही जुडी हुं। स्नातक स्तर में संयोजक के रूप में मैंने अनुभव किया कि अधिकांश विद्यार्थी, संस्कृत, मनोविज्ञान, और तीसरे विषय के रूप में हिंदी साहित्य को लेते है। मैंने एक बार पुछा- ’तुम लोग लगता है हिंदी से बहुत अनुराग रखते हो। सभी लोग हिंदी ले रहें हो?’ छात्रों ने उत्तर दिया- ’नहीं मैम हिंदी में पढना नहीं पडेगा, इसलिए हिंदी ले रहे हूं।’ एम.ए. प्रथम वर्ष हिंदी के छात्रों का सर्वेक्षण करने पर पता चला कि 60 में से केवल 15 विद्यार्थी ही कक्षा मेें उपस्थित रहते है। ज्ञात हुआ कि उन विद्यार्थियों माता-पिता ना तो कोचिंग करा सकते है और ना ही कोई रोजगार है इसलिए बेकार बैठने से अच्छा है कि हिंदी से ही एम.ए. करा दिया जाए। आज हिंदी प्रतिभाहीनों की विवश विकल्प बन गइ है। हिंदी की स्थिति तो आज भगवन राम के समान हो गई है कि अयोध्या के राजा बनने की घोषणा तो हो गई किन्तु अभिषेक कि पूर्व ही वनवास मिल गया।
    आज उच्चतर शिक्षा में हिंदी की स्थिति उस दीन की भांति हो गई है जो सबका कल्याण करती हैं, अपनी सरलता, सहजता स्पष्टता, मधुरता तथा संवदेनशीलता के द्वारा सभी की भावनाओं और विचारों को सफलता के साथ अभिव्यक्ति करती हैं किंतु उसकी ओर मंगलमय निगाहों से देखने वाला कोई नही हैं।
वास्तव मे जो दीन की ओर उन्मुख होगा अर्थात हिंदी की महŸाा को आत्मसात करेंगा वह दीनबंधु की भांति पूजा जाएगा। कोई भाषा चाहें वह अंग्रेजी हो, तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड हो, हमें बैर नहीं हैं। सभी समृद्व भाषाएं है, सभी के माध्यम से मानवीय भाव एंव विचार व्यक्त किए जाते हैं किंतु अपने मां के ममत्व को बचकर किसी भाषा के अस्तित्व को स्वीकार किया नहीं जा सकता। युग पुरूष महावीर प्रसाद द्विवेदी नें लिखा हैै- ’’जो व्यक्ति अपनी मां को निरूपाय तथा असहाय छोडकर दूसरों की सेवा सुश्रुषा करता है, उस अधर्म का प्रायश्चित क्या हो, इसका निर्णय कोई मनु या याज्ञवल्क्य ही करेंगा।’’
आज हम आए दिन उपदेश देते है कि हिंदी बोलनी तथा लिखनी चाहिए किंतु जब अपने बच्चों की बारी आती है तो अंग्रेजी माध्यम स्कूल मे ही प्रवेश दिला देते है। मुझे स्मरण हो आया उस पंडित जी का प्रवचन जो घर के बाहर चैपाल पर उपदेश दे रहे थे कि बैंगन बहुत खराब चीज है, इसके खाने से पेठ दर्द तथा अन्य बीमारियां होने की संभावना होती रहती हैं। प्रवचन समाप्त करके पंडित जी अंदर गए और कहा- ’अरे पंडितानी बैंगन का भर्ता बनाया है न!’ पंडितानी ने बोला मैंने आपका प्रवचन सुनकर बैंगन का सारा भर्ता उधर नाले में फेंक दिया।’ पंडित जी ने क्रोधित होते हुए कहा-’ पंडितानी! चैकी की बात अलग और चैके की बात अलग होती है। मैं तो केवल दुसरो को उपदेश दे रहा था। मुझे तो बैंगन बहुत पसंद है।’ शायद इसलिए हिंदी राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर पाई। मेरा मानना है कि कोई भी स्वतंत्र एंव प्रभुसŸाा से संपन्न राष्ट्र, विश्व के मानचित्र में अलग से दृष्टिगोचर हो, अलग से उसकी पहचान बन सके, इसके लिए तीन बात आवश्यक होती हैं। 1.राष्ट्रधवज, 2.राष्ट्रगीत, 3.राष्ट्रभाषा।
अत्यंत ही हर्ष और गौरव की अनुभूति हो रही है कि स्वाभिमान का प्रतीक तिरंगा ध्वज हमारे राष्ट्र की पहचान बन चुका है। राष्ट्रप्रेम की भावना से ओत-प्रोत मानवीय चेतना को झंकृत कर देने वाला राष्ट्रगीत भी हमारे पास है किंतु कष्ट की अनुभूति हो रही है यह वयक्त करते हुए कि संपूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने वाली तथा हमारे अस्तित्व को महिमामंडित करने वाली राष्ट्रभाषा  अभी भी हमारे पास नहीं है। यह अत्यंत चितंनीय विषय है कि आखिर वह कौन सा कारण है कि यदि अंग्रेजी से कोई एम.ए. कर रहा है तो उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और हिंदी से एम.ए. बताया तो दूसरा व्यक्ति हेय दृष्टि से देखने लगता है। मेरी समझ से कारण स्पष्ट है कि कोई भी भावना भाषा से नहीं पनपती। उसके प्रचार-प्रसार तथा विकास की संभावना तब दिखाई देती है जब उस माध्यम में बेहतर शिक्षा व्यवस्था हो, विश्वव्यापी महात्म्य से समाज अवगत हो जो हमारी रोजी-रोटी का माध्यम बन सके तथा जिस भाषा में उसका भविष्य सुरक्षित हो सके। हिंदी साहित्य पढकर प्रतियोगी परीक्षा में भी सफलता की प्राप्ति कर सके तथा उच्चतर हिंदी अध्ययन से केवल मास्टर तथा पटवारी ही नहीं बल्कि प्रोफेसर, इंजीनियर, तथा डाॅक्टर भी बन सकें तब उच्चतर अध्ययन के क्षेत्र में हिंदी अपनी अस्मिता की रक्षा एंव सुरक्षा कर पाएगी। आज वास्तुशास्त्र, अर्थशास्त्र, संगणक विज्ञान, रसायन शास्त्र, अभियांत्रिकी तथा खगोलशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में हिंदी प्रतिष्ठित होती चली जा रही है। वर्तमान समय मे हिंदी के बूते मैनेजमेंट क्षेत्र मे भविष्य की तलाश कर रहें  युवाओं के लिए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय नें दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से एम.बी.ए, बी.बी.ए, पी.जी.डी.एम तथा डी.बी.एम की पढाई का शुभारंभ करा दिया हैं। मैं नमन करता हूं विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति का जिन्होंने कहा था कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी के माध्यम से उपभोक्ताओं तक पहंुचने का सफल प्रयास कर रही हैं। स्वाधीनता सेनानी काका कालेकर नें हिंदी के लिए एक नाम दिया था- ’सबकी बोली’। मुझे तो लगता है कि जैसे आज हम सब अपेक्षा करते हैं कि देश-विदेश में ’हिंदी’ पढाई जाएं वैसे ही हमारे यहां तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड,तथा अंग्रेजी केवल ज्ञानार्थ पढाई जाए, इससे संपर्क तो अगे बढेगा ही।
    आज वह समय आया है जब हम संकल्प लें कि स्वंय के हस्ताक्षर, आमंत्रण पत्र, परिचय पत्र तथा नाम पट्टिकाएं आदि कार्य हिंदी में संपादित करें तथा प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा तक हिंदी का ही वर्चस्व कायम करें फिर चतुर्दिक हिंदी की ही गंगा प्रवाहमान होती दृष्टिगोचर होगी।
    हमेूं हिंदी के देवनागरीकरण का अभियान भी चलाना होगा क्योंकि हिंदी लिपि (देवनागरी) से ही भाषा के प्राणों की रक्षा हो सकती है। देवनागरी लिपि ही हिंदी की देह है। हिंदी की अस्मिता का श्रेष्ठ साधन है। हमें यह अहसास करा देना होगा कि हिंदी हम सबका दिल है, सबके दिल में हिंदी के प्रति यदि धडकन पैदा कर सकें तो यही एक कालजयी भाषा के प्रति वास्तविक निष्ठा होगी।
        लेखिका फीरोज गांधी
        साभार-दैनिक जागरण

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