देश के विभिन्न राज्यों में शिक्षा बोर्ड इंटर और हाईस्कूल के परीक्षा परिणाम घोषित कर चुके हैं। यहां तक कि इस बार पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश ने सीबीएसई से पहले ही परिणाम घोषित कर दिए, लेकिन उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद इस दिशा में कदम नहीं बढ़ा पाई। सीबीएई और आइसीएसई के साथ ही राज्यों के तमाम बोर्ड शिक्षा सत्र को सुव्यस्थित करने की कवायद में जुटे हैं। उत्तर प्रदेश बोर्ड की पहल भी उसी दिशा में उठाया गया कदम है। एक जमाना था जब उत्तर प्रदेश में बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम जून के दूसरे सप्ताह तक घोषित किए जाते थे। यहां तक कि तब हाईस्कूल और इंटर के परिणाम भी अलग-अलग दिन घोषित करने की परंपरा थी, लेकिन वक्त बीतने के साथ बोर्ड ने न केवल अपनी परंपराओं में बदलाव किया, बल्कि अपनी बेहतर कार्यकुशलता का भी परिचय दिया है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है मानो उत्तराखंड अपने सहोदर उत्तर प्रदेश से भी कुछ सीखने को तैयार नहीं है। सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में छात्रों की संख्या उत्तराखंड के अपेक्षा खासी अधिक है, बावजूद इसके वहां परीक्षा के परिणाम पहले घोषित हो जाते हैं। सवाल सिर्फ परीक्षा परिणाम घोषित करने का नहीं है, बल्कि सिस्टम को दुरुस्त करने का भी है। शहरी क्षेत्रों में उत्तराखंड बोर्ड के छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। पर्वतीय क्षेत्रों में बच्चों की तादाद कुछ ठीक है, लेकिन स्कूलों की हालत को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। स्कूलों के भवन भले ही बने हुए हों, लेकिन वहां शिक्षकों को भेजना आज भी चुनौती बनी हुई है। पहाड़ों में तैनाती ज्यादातर शिक्षकों को नहीं सुहाती, ऐसे में वे मैदानी क्षेत्रों के लिए सिफारिश करने में व्यस्त रहते हैं। पौड़ी हो या पिथौरागढ़ अथवा अल्मोड़ा, चमोली या रुद्रप्रयाग, सब जगह स्थिति ऐसी ही है। सुगम और दुर्गम के निर्धारण में जुटे शिक्षा विभाग में पर्वतीय क्षेत्र के स्कूलों में शिक्षकों की संख्या व्यस्थित करने की चाहत क्यों नहीं परवान चढ़ पा रही। यह रहस्य अब भी बरकरार है। यह कहने में भी गुरेज नहीं किया जाना चाहिए कि शिक्षकों का ज्यादातर वक्त अधिकारों जंग में बीत रहा है। अधिकारों के लिए संघर्ष करने में कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन कर्तव्य के प्रति भी संजीदगी दिखनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि सभी शिक्षक संजीदा नहीं हैं, जो शिक्षक संजीदा हैं, उनके स्कूल के परीक्षा परिणाम में यह मेहनत परिलक्षित भी होती है। जाहिर है ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता पर असर तो पड़ेगा ही। दरअसल, सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए बोर्ड और शिक्षा विभाग के साथ ही सरकार को भी कदम उठाने पड़ेंगे। सख्त फैसले लिए बिना सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती।
साभार जागरण
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