कहानियों की उंगली थाम वे किताबों तक जा पहंुचते हैं

बचपन की पहली कहानियां हम परिवार से ही सुनते रहे हैं। दादा-दादी की कहानियां, नाना-नानी की कहानियां, ऐसी न जाने कितनी परंपराएं हैं, जो परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली हैं। इन कहानियों के राजा-रानी, परियां, जादूगर, उड़ने वाले घोड़े, जादुई पहाड़, मतवाले हाथी, भयानक राक्षस, मायावी भूत-प्रेत कई बार सपनों में आकर बहलाते और डराते भी थे। कहानियों पुस्तकों में दिलचस्पी जगाने की ये पहली पाठशालाएं थीं। माना जाता था कि इनमें सुनी-सीखी गई बातें जीवन भर काम आती हैं। हालांकि वक्त के साथ परिवार के सिकुड़ते ढांचे ने इस तरह कहानी कहने और सुनने की परंपरा को कम या खत्म सा कर दिया है। पहले टीवी और फिर इंटरनेट ने बच्चों के लिए भी इस जरूरत को समाप्त कर दिया। अब पश्चिम में नए शोधों में कहा जा रहा है कि यदि बच्चों को जोर से पढ़कर कहानी सुनाई जाए, तो आगे चलकर उनकी पढ़ने में दिलचस्पी पैदा होती है। यही नहीं, अगर बच्चे अपने माता-पिता को पुस्तक पढ़ते देखते हैं, तो उनकी दिलचस्पी भी किताबों और पढ़ने में पैदा होती है। यही नहीं, वे ध्यान से सुनना भी सीखते हैं और शायद मन के भटकने की समस्या का समाधान भी इसी में है। इससे उनकी सुनकर सीखने की क्षमता बढ़ती है।


हाल ही में ब्रिटेन में नीलसन कंपनी ने इसी मार्च के महीने में एक सर्वे किया था। इसमें पता चला कि 13 साल से कम के 32 प्रतिशत बच्चे पढ़ने में दिलचस्पी रखते हैं, जबकि 2012 में यह प्रतिशत 41 था। इन दिनों वहां आठ से दस वर्ष की उम्र के मात्र 19 प्रतिशत बच्चे ही पढ़ने में दिलचस्पी दिखाते हैं। कहा जाता है कि अब बच्चे सुनने से ज्यादा देखना पसंद करते हैं। ज्यादातर घरों में टीवी, कंप्यूटर से लेकर मोबाइल तक की सुविधाएं उपलब्ध हैं। माता-पिता को भी लगता है कि बच्चे जब अपने आप सब कुछ देख-सुन रहे हैं, तो उन्हें अलग से कहानी सुनाने की क्या जरूरत? स्कूलों में भी जो स्टोरी टेलिंग सेशन होते हैं, उनमें बहुत से स्कूल चाहते हैं कि कहानी स्क्रीन पर प्रेजेंटेशन के जरिए ही दिखाई जाए। बच्चों से यदि कहानी सुनाने को कहा जाए, तो वे मुश्किल से कहानी के तारों और सूत्रों को जोड़ पाते हैं। इसका कारण बताया जाता है कि बच्चों को कहानी सुनाना कम कर दिया गया है। यदि स्कूलों में बच्चों को कहानी सुनाई जाए, तो न केवल वे सुनना और सीखना, बल्कि कहानी कहना भी सीखते हैं।


अक्सर बहुत से माता-पिता पूछते हैं कि वे अपने बच्चों में किताब पढ़ने के लिए दिलचस्पी कैसे पैदा करें? इसके लिए जरूरी है कि माता-पिता खुद पढे़ं और बच्चों को पढ़कर सुनाएं। इससे न केवल बच्चे कहानियां सुनते हैं, उन घटनाओं के अपने मन में चित्र बनाते हैं, बल्कि वे सवाल करना भी सीखते हैं। इससे उनकी जिज्ञासा और ज्ञान, दोनों बढ़ते हैं। और यह सोच तो खैर नई नहीं कि कहानियां सुनने से बच्चों में अच्छाई-बुराई, सच-झूठ की पहचान तो बढ़ती ही है, दूसरों की मदद करने की भावना भी पनपती है। उनका आत्मविश्वास और हर चुनौती से निपटने की ताकत भी बढ़ जाती है। जीवन, परिवार और समाज के वे मूल्य भी उन्हें इन्हीं से मिलते हैं, जिसे आम भाषा में संस्कार कहा जाता है। इसके अलावा, माता-पिता को यह समझने में भी मदद मिलती है कि बच्चे के मन में क्या चल रहा है? वह किस पात्र को पसंद कर रहा है? किससे डर रहा है? किसके बारे में सवाल कर रहा है? किस बात को समझने में उसे दिक्कत हो रही है?


स्कॉलिस्टिक इंडिया के 2015 में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला था कि 85 प्रतिशत बच्चे अपने घर में पढ़ना पसंद करते हैं। 69 प्रतिशत अपने माता-पिता से कहानियां सुनना चाहते हैं। इसे वे माता-पिता के साथ बिताया जाने वाला सबसे अच्छा समय मानते हैं। छह से 11 साल के 57 प्रतिशत बच्चे, जिन्हें माता-पिता अब कहानियां नहीं सुनाते, चाहते थे कि वे दोबारा ऐसा करें। 48 प्रतिशत बच्चों का कहना था कि जो किताबें उन्हें पढ़ने में मुश्किल लगती हैं, माता-पिता उन्हें उनकी कहानियां सुनाएं। कहानी सुनाने का अर्थ बच्चों की किताबों में रुचि जगाना तो है ही, यह वह रास्ता है, जो भविष्य के पाठक भी तैयार कर सकता है। यह समझना जरूरी है कि बच्चे जहां चलना, खेलना और बोलना पढ़ना सीखें, उनकी पहली पाठशाला भी वही हो सकती है।


(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


लेखक - क्षमा शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार)
साभार हिन्दुस्तान

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