देर से ही सही, लेकिन अब सरकार ने सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर चिंतन-मनन शुरू कर दिया है। इसके तहत दिल्ली के स्कूलों की तर्ज पर एक से आठवीें तक की कक्षाओं में पहले-दूसरे पीरियड में खुशनुमा माहौल के लिए हैप्पीनेस क्लास चलाई जाएंगी। निसंदेह यह पहल सराहनीय है। आज के दौर में बच्चों को तनावमुक्त रखना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। साथ ही बच्चों को नैतिक शिक्षा से जुड़ी कहानियां सुनाकर उन्हें जीवनमूल्यों के प्रति संवेदनशील भी बनाया जाएगा। बावजूद इसके योजना का दायरा सरकारी स्कूलों तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। आखिर इस योजना से निजी स्कूलों को क्यों दूर रखा जा रहा है। जैसे सरकार ने बस्ते का बोझ कम करने का आदेश निजी स्कूलों पर लागू किया है, वैसे ही इस मामले में भी किया जाना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि योजना को गंभीरता के साथ धरातल पर उतारा जाए तो इसके नतीजे सकारात्मक होंगे। लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी गौर करने की जरूरत है। सवाल यह है कि क्या सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या का कारण सिर्फ तनाव है। देखा जाए तो ऐसा प्रतीत नहीं होता, इसके दूसरे कारण ज्यादा अह्म हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में स्कूलों के भवन भले ही खड़े हों, लेकिन उनमें शिक्षक नहीं हैं। ज्यादातर शिक्षक सुदूरवर्ती इलाकों में सेवा देने की बजाए सुगम वाले क्षेत्रों को तरजीह दे रहे हैं। जो शिक्षक हैं भी उनमें से अधिकतर स्कूलों में जाने से परहेज करते नजर आते हैं। नतीजतन परिणाम निराशाजनक हैं। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2018 से हालात का काफी कुछ पता चल रहा है। मसलन, सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले करीब आधे बच्चे दूसरी कक्षा की किताब तक नहीं पढ़ पाते। आठवीं कक्षा के 20 फीसद बच्चे कक्षा दो की किताब नहीं पढ़ सकते। कक्षा तीन के 19 फीसद छात्र ही घटाना जानते हैं। पांचवीं कक्षा के सिर्फ 26 फीसदी छात्र ही भाग कर पाए। आठवीं कक्षा के 27 फीसदी छात्र 10 से 99 के बीच की संख्या तक नहीं पहचानते। मामला इससे भी अधिक गंभीर है। बच्चों को सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं तक मयस्सर नहीं हैं। खेलने के लिए मैदान, पुस्तकालय, पीने का पानी और टॉयलेट जैसी सुविधाओं के लिए संघर्ष जारी है। आधुनिकता के इस दौर में राज्य के नब्बे फीसद सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर तक नहीं है। जाहिर है वह सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। दरअसल, जरूरत इस बात की है कि योजनाएं बनाते समय गंभीरता से मनन की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए आने वाले दिनों में बदलाव देखने को मिलेगा।
साभार जागरण
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