एक संस्कृति जो शिक्षा के लिए सबसे ज्यादा घातक है

पदक्रम में ऊंच-नीच की जकड़न से मेरा परिचय कई साल पहले हो गया था। एक राज्य में परीक्षा पद्धति में सुधार का एक बहुत अच्छा और प्रशंसनीय प्रस्ताव लाया गया, जिसमें महज रट्टेबाजी की जांच करने वाले सवालों की जगह अवधारणा से जुड़े सवाल रखने की बात की गई। इसके लिए दो दिन की एक कार्यशाला का आयोजन भी तय हुआ, जिसमें विद्वान शिक्षाविदों को आमंत्रित किया गया, ताकि वे इस मामले में अपनी विशेषज्ञता सबसे साझा कर सकें। कार्यशाला से हफ्ता भर पहले विभाग के डायरेक्टर को पता चला कि कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में वरिष्ठ अधिकारी व मंत्री भी आएंगे। अचानक सबका ध्यान कार्यशाला के अकादमिक पहलुओं से हटकर बेमतलब के प्रोटोकॉल और विभागीय कर्मकांडों पर केंद्रित हो गया। कार्यशाला का जो समय शैक्षणिक चर्चा में लगाया जा सकता था, वह इस सत्र की तनावपूर्ण औपचारिकताओं में निकल गया।


एक ऐसे तंत्र में, जहां ऊंचे पदों के प्रति अर्थहीन निष्ठा और श्रद्धा दिखाने का चलन है, हमारे देश में ऐसे कई बेहतरीन शिक्षक हैं, जो दासता की इस संस्कृति के दमकते अपवाद हैं। मैंने इन शिक्षकों के बेहतरीन गुणों, नेतृत्व क्षमता, कल्पनाशील शिक्षण आदि के बारे में लिखा है। लेकिन मैं आपका ध्यान कुछ एक शिक्षकों में मौजूद एक और सराहनीय गुण की तरफ भी आकर्षित करना चाहूंगा। वह है, इन शिक्षकों में बड़े ‘अधिकारियों का सामना करने का आत्मविश्वासश्। इस गुण की जांच के लिए मेरे पास एक निजी संकेतक है- जब कोई निरीक्षक या अधिकारी स्कूलों में जाते हैं, तो ज्यादातर हेड टीचर तुरंत खड़े हो जाएंगे और अपनी कुर्सी उनके बैठने के लिए खाली कर देंगे, क्योंकि यह ‘शिष्टाचारश् इस व्यवस्था की संस्कृति का हिस्सा है। प्रशासन से आया यह रोग शिक्षा व्यवस्था में हर जगह दिखाई दे जाता है। और अगर ऐसे दमघोंटू माहौल में भी मुझे इस तरह के हेड टीचर मिलते हैं, जो इस संस्कृति को मानने को कतई तैयार नहीं हैं और खुद को अपने पद की वजह से कमतर नहीं आंकते, तो मैं इसे उनके आत्मविश्वास का, उनकी स्वतंत्र चेतना का शुभ संकेत मानता हूं।


यहां शिक्षा की बात हो रही है और मैं सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र से मिसाल दे रहा हूं, लेकिन पूरा सच यह है कि ऊंचे पदों के प्रति दासता का भाव हमारे शासन तंत्र और जीवन के हर आयाम में ऊपर से नीचे तक सब जगह फैला हुआ है। अगर किसी विभाग का मुखिया महज हफ्ते भर पहले विभाग में आया है, फिर भी वह विभागीय मसले पर पूरे अधिकार से बोलेगा और बाकी लोग चुप होकर उसे सुनते रहेंगे। समय के साथ पद से मिली ताकत को दिखाने के तरीके अब बहुत बारीक हो गए हैं।


मैंने देश भर में नौकरशाहों की अध्यक्षता में होने वाली ऐसी कईबैठकों में देखा है, जिनमें मेज के ईद-गिर्द कुर्सियों के दो घेरे होते हैं। एक अंदरूनी घेरा, जो बैठक की मेज से लगा होता है और एक बाहरी, जिसमें कुर्सियां दीवार से लगी होती हैं। भले ही बैठक में ज्यादातर जानकारी जूनियर को ही देनी हो, लेकिन उसे अपनी बात उस बाहर के घेरे में रहकर ही पेश करनी होगी। बाकी सदस्य, भले ही उनको कुछ नहीं कहना हो, वे अंदर के घेरे में बैठे रहेंगे, क्योंकि वे सीनियर हैं।


ऐसे गुलामी भरे माहौल में, मुझे छोटे-छोटे जमीनी स्तर पर हो रहे बदलाव उम्मीद से भर देते हैं। इन्हीं सब स्थितियों के बीच मुझे ऐसे गजब के शिक्षक भी देखने को मिले हैं, जिनमें सत्ता के सामने नहीं झुकने का नायाब गुण है। निरर्थक दासता का कीड़ा जहां कहीं भी होता है पूरे शासन तंत्र को खोखला कर देता है, लेकिन ऐसी संस्कृति का असर शिक्षा क्षेत्र में सबसे खतरनाक होता है। अगर शिक्षा की संस्कृति में सवाल उठाने की गुंजाइश नहीं होगी, तो शिक्षक व शिक्षा के संस्थान अपने विद्यार्थियों में सोचने व सवाल उठाने की क्षमता, आजादी व ईमानदारी के साथ जीने वाले तार्किक व सामाजिक तौर पर सचेत नागरिक बनने की संभावनाओं को कैसे विकसित कर सकेंगे? यही वह वजह है कि अच्छे शिक्षकों में आजादी और सच्चाई के ये लक्षण इतने जरूरी हैं। बदलाव हमेशा ही धीमा और कठिन होता है, लेकिन जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग इस रास्ते पर चलेंगे, हमारे सार्वजनिक जीवन में गहरी पैठ बनाए बैठी पदक्रम की ऊंच-नीच की ये बेमतलब बेड़ियां कमजोर होंगी।


(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक एस गिरिधर
सीओओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार हिन्दुस्तान

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