भावी पीढ़ी भविष्य की उम्मीद में वर्तमान में अभिभावक शिक्षा के लिए हर संकट उठाने को तैयार रहते है, लेकिन क्या शिक्षा के भविष्य के बारे में सोचा जा रहा है? बदलते समय में शिक्षा की परिकल्पना और बदलाव को समझना आवश्यक है। शिक्षा के भविष्य पर बात करने से पहले इसके अतीत और वर्तमान का उल्लेख आवश्यक है। सीखने के समानार्थी रूप में शिक्षा मानव सभ्यता के आरंभ से शामिल रही है। यहां शिक्षा का मकसद व्यक्ति को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती के कौशल सिखाना था। धीरे-धीरे शिक्षा सामाजिकता के विकास का माध्यम बन गई। मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती के साथ नागरिकता के गुणों के विकास को भी शिक्षा के लक्ष्यों से जोड़ दिया गया। औधोगिक क्रांति के बाद तो शिक्षा की भूमिका में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। वह मानव संसाधन तैयार करने वाले साधन के रूप में स्वीकार की जाने लगी। लिखने, पढ़ने और गिनने की दक्षताएं, उत्पादन की कुशलताएं और प्रभावपूर्ण तरीके से मानसिक और शारीरिक श्रम की आदत का विकास शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य बन गया। बाल दिवस के अवसर पर इस पर विचार आवश्यक है कि इस लक्ष्य स्वरूप भविष्य की शिक्षा के लिए उपयोगी है?
पिछले कुछ दशकों में समाज और संस्कृति में महत्वपूर्ण बदलाव आ चुके है। एक दौर में शिक्षा के कंधों पर विकास की जिम्मेदारी थी। आजकल यही शिक्षा विकास और वैश्वीकरण के पीछे चल रही है। शिक्ष की तीन संकल्पनाएं हैः पहली, सत्य की खोज, दूसरी, मानव की दशाओं में सुधार और तीसरी, बौद्धिक एवं शारीरिक श्रम का उत्पाद। हमारी शिक्षा व्यवस्था इनमें से बाद के दो उद्देश्यों को ढो रही है। जबकि अपने मौलिक रूप में शिक्षा खोज की एक सतत प्रक्रिया है और न ही मापा जा सकता है। आज हम एक ऐसे दौर में है जब खुद के अलावा हर दूसरे को अपना प्रतियोगी मान रहे है। ज्ञान द्वार सत्य की सुंदरता और सहजीवन को सींचने के बदले आत्ममुग्धता में डूब रहे है। इन परिस्थितियों के लिए शिक्षा भी उत्तरदायी है। वह विकास की अनुगामी बन चुकी है। जबकि भारतीय परंपरा में आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय विकास एक-दूसरे से जुडे हुए है। हम विचार और वस्तु के दोहन का संबंध देखने के बदले सृजन और सहअस्तित्व का रिश्ता बनाते है। हमारी परंपरा में शिक्षा केवल उपयोगिता को निर्मित और संवर्धित करने वाले विवेक का निर्माण नही है, बल्कि उचित-अनुचित का बोध विकसित करने वाली प्रज्ञा है। शिक्षा विकास का माध्यम नहीें है, बल्कि सद्-असद् के बोध का विकास ही शिक्षा है। ऐसी शिक्षा के लिए केवल औपचारिक प्रयासों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हमारे घर, समुदाय और सांस्कृतिमक गतिविधियों सभी शिक्षित करने का माध्यम है। हमें इन माध्यमों और अपनी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है। आखिर हम अपने बच्चों को शिक्षित करने के दौरान शिक्षा की प्रक्रियाओं से जुडने और उसमें योगदान करने का कितना प्रयास करते हैं? हमें स्कूल जो बता देता है उसे हम मान लेते है। हम यह भी मान लेते हैं कि स्कूल जो भी करता है, हमारे बच्चों की भलाई के लिए करता है, लेकिन इस भलाई के कार्य में अभिभावक के योगदान का क्या? उनकी भूमिका सुनी-सुनाई पर विश्वास करता है। हमारे यहां न तो स्कूल यह जानना चाहता है कि उसकी दीवार के बाहर बच्चे की दुनियां कैसी है और न ही अभिभावक यह जानना चाहता है कि स्कूल के भीतर की दुनिया में क्या हो रहा है?
अभिभावक और स्कूल के बीच संवाद या तो प्रबंधन के स्तर पर है या बच्चों की उपलब्धि के विषय में। विचार कीजिए कि आज अभिभावक की दिनचर्या में बच्चों से बात करने का कितना हिस्सा है? कब हम उनके मीठे और कड़वे अनुभव से खुद को जोडते है? कब उनसे दुनियादारी की बाते करत है? कब स्कूल से हम उसकी गतिविधियां के बारे में सवाल करते है? स्कूल कब बच्चे के अनुभवों के बारे में अभिभावक को बताता? कब अभिभावक और शिक्षक मिल बैठकर बच्चे की कमजोरी और मजबूती पर चर्चा करते है? इन सारे सवालों को कम केवल स्कूल के भरोसे नहीं छोड सकते। शिक्षा का भविष्य अभिभावक और समुदाय के सदस्यों की ओर से भी सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा रखता है।
शिक्षा द्वारा ऐसा माहोल तैयार करने की जरूरत है जो हमारी भावी पीढ़ी में विश्वास, प्रेम, सहयोग और आत्मीयता भर सके। वह न केवल व्यक्ति को खुद की क्षमताओं के प्रति जागरूक करे, बल्कि उन्हें जीवन को संपूर्णता के साथ जीने के लिए प्रेरित करें। इसके साथ ही उनमें सह जीवनके मूल्यों को पोषित करे। ये लक्ष्य स्वाभाविक रूप से व्यक्ति और समाज के जीवन में खुशहाली भर देंगे।
(लेखक माहात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विवि में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
लेखक:- ऋषभ कुमार मिश्र
साभार जागरण
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