निजी स्कूलों की मनमानी

बाजार आधारित व्यवस्था और उसको शिक्षा जैसे विषय सौंप देने की अतीत में की गई भूल के कारण आज पानी सिर से ऊपर बह रहा है। फीस वसूली ही नहीं, बच्चों के दाखिले व किताब-कॉपी के नाम पर पब्लिक स्कूल अभिभावकों का बहुत शोषण कर रहे हैं। अब इस रेस में उन नामी-गिरामी ट्रस्टों के स्कूल भी शामिल हो गए हैं, जिनकी स्थापना शिक्षा के उन्नयन के लिए की गई थी। कमाई की इस मिलीभगत में सरकारी तंत्र, राजनीतिक तंत्र और स्कूल प्रबंधन समान तौर पर भागीदार हैं। ज्यादातर पब्लिक स्कूलों का उद्देश्य अधिकाधिक कमाई करना बन गया है। सरकारी नियमों के मुताबिक, स्कूलों और अस्पतालों को बाजार दर की बजाय रियायती कीमत पर जमीन दी जाती है, क्योंकि सरकारी तंत्र स्कूल और अस्पताल को व्यावसायिक से ज्यादा जनहितैषी गतिविधि मानता है। उदारीकरण के बाद, खासकर पब्लिक और निजी स्कूल शिक्षा की दुकान बन गए हैं। संसाधनों का रोना रोती सरकारें स्कूलों की मनमानी को जान-बूझकर नजरंदाज कर रही हैं।


सुभाष बुड़ावन वाला
खाचरौद, मध्य प्रदेश
साभार हिन्दुस्तान

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