शिक्षक दिवस पर शिक्षा और मातृत्व के संबंध पर विचार आवश्यक है। मातृभाषा अपने माता पिता से प्राप्त भाषा है। उनमें जडें है, स्मृतियां हैं व बिंब भी। मातृभाषा एक भिन्न कोटी का सांस्कृतिक आचरण देती है, जो किसी अन्य भाषा के साथ शायद संभव नहीं। मातृभाषा के साथ कुछ ऐसे तत्व जुडे होते है जिसके कारण उसकी संप्रेषणीयता उस भाषा के बोलने वालों के लिए अधिक मार्मिक होती हैं। यह प्रश्न इतिहास और संस्कृति के वाहन से भी संबद्व है। इसलिए शिक्षा में इसका महत्व है। संस्कृति का कार्य विश्व को महज बिंबो में वयक्त करना नहीं, बल्कि उन बिंबो के जरिये संसार को नूूतन दृष्टि से देखने का ढंग भी विकसित करना है। औपनिवेशिकता के दबाबों ने ऐसी भाषा में दुनिया को देखने के लिए विवश किया गया जो दूसरों की भाषा रहीं है। उसमें हमारे सच्चे सपने नहीं आ सकते थे। साम्राज्यवाद सबसे पहले सांस्कृतिक धरातल पर आक्रमण करता है। वह भाषा को अवमूल्यित करने लगता है। हमारी ही भाषा को हीनतर बताता है। लोग अपनी मातृभाषा से कतराने लगते है अैर विश्व की दंबग भाषाओं के प्रभुत्व को महिमामंडित करने लगते हैं। हम उसी में अभिव्यक्ति करने लगते है या बंध जाते है और अपनी मातृभाषा को अंततः छोडने लगते है। गर्व से कहते है कि मेरे बच्चे को मातृभाषा नहीं आती। यानि शिक्षा का वर्गातरण होता जाता है।
शिक्षा को समझने के कई सूत्र होते है। मातृभाषा उनमें सर्वोपरि है। उसमें अपनी कहावतें, लोककथाएं, कहानियां, पहेलियां, सूक्तियां होती हैं, जो सीधे हमारी स्मृति की धरती से जुडी होती है। उसमें किसान की शक्ति होती है। उसमें एक भिन्न बनावट होेती है एक विशिष्ट सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बनावट जिसमें अस्मिता का रचाव होता है। जब भी किसी महादेश की पीडा का बयान होगा तो कोई भी मौलिक लेखक अपनी मातृभाषा में जितनी त्रीवता और तीक्ष्णता से अपनी बात कह पाएगा, अन्य भाषा में नहीं। आत्म अन्वेशण की जो गहराई मातृभाषा के साथ संबंध है, अन्य भाषा के साथ नहीं। अन्य भाषा में बात कही जा सकती है, लेकिन वह मार्मिकता संभव नहीं।
शिक्षा में मातृभाषा से अपने परिवेश व पर्यावरण का बोध होता है। संबद्वीकरण की प्रक्रिया में मजबूती होती है। अलगाव से बचाव होता है। मातृभाषा में वह मौलिक लय प्रकट होती है जिससे प्रकृति और प्रवेश के साथ सामाजिक संघर्ष भी प्रकट होता हैं। उससे साहित्य और संस्कृति के सकारात्मक,मानवीय जनतांत्रिक तत्व भी सामने आते है। अपनी संस्कृति की जडों में जाकर हमे आत्मविष्वास की अनुभूति होती है। उधार ली हुई भाषा हमारे साहित्य एंव कलाओं का विकास नहीं कर सकती, क्योंकि उनका संबंध हमारी रगात्मक रूप से जुडा नहीं है। उधार की भाषा का सत्ता केन्द्र कहीं और होता है और वह अपनी मातृभाषा जैसी आकांक्षा की पूर्ति का वाहक नहीं हो सकता। मातृभाषा में धरती की जो गंध है और कल्पनाशीलता का जो पारंपरिक सिलसिला है वह अन्य भाषा मं संभव नहीं ।
मातृभाषा में जनता के संघर्ष बोलते है। कोई व्यक्ति जो मातृभाषा की महŸाा जानता हो उसे पता है कि आंदोलन, लोकछवी, आत्म अविष्कार और बदलाव के लिए इससे बेहतर कोई माध्यम नहीं, क्योंकि उसका वास्ता उन भाषाओं से पडेंगा जो वहां की जनता बोलती है और जिसकी सेवा के लिए उसनें कलम उठाई है। वह वही गीत गाएगा जो जनता चाहती है। मातृभाषा के माध्यम से अर्थ सीधे-सीधे सारोकार से है। इससे उस माध्यम के सामाजिक व राजनैतिक निहितार्थो का बोध होता है। इसके लिए शिक्षा में इसका गहरा औचित्य है। मातृभाषा के माध्यम से लोगों की वास्तविक आवष्यकताओं को गीतों, नृत्यों, नाटकों, कविताओं आदि के जरीए अभिव्यक्ति दी जा सकती है तथा नई चेतना की आकांक्षा को स्वर दिया जा सकता है। श्रमिक वर्ग व जनसामान्य को मूलतः उनकी मातृभाषा में अच्छी संबांधित व संप्रेशित किया जा सकता है। मातृभाषा में संरचनात्मक रूपांतर की प्रक्रिया में शिक्षा संस्कृति की एक निर्णायक भूमिका होती है जो साम्राज्यवाद के नए औपनिवेशिक चरण में विजय के लिए जरूरी है। शिक्षा और संस्कृति में आवष्यक संबंध है और सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक पक्षों से सीधा सारोकार है इसलिए शिक्षा में मातृभाषा की प्रभावी भमिका है।
सच यह है कि संस्कृति अपने आप में इतिहास की अभिव्यक्ति व उत्पाद भी है, जिसका निर्माण प्रकृति और अन्य लोगों के साथ संबंधो पर आश्रित है, इसलिए वहां मातृभाषा का अंतरंग प्रवेश है। यदि मातृभाष को आधार बनाया गया तो सामुदायिकता में आबद्व गण अपनी भाषा, साहित्य, धर्म, थिएटर, कला, स्थापना, नृत्य, और एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को विकसित करते है जो इतिहास और भूगोल को एक पीढी से दूारी पीढी तक पहुंचा पाते है। शिक्षा और संस्कृति वर्गीय विभेदों को समाज की आर्थिक बुनियाद में व्यक्त करती है। वास्तव में वर्गीय समाजों में दो तरह की शिक्षा के बीच संघर्ष चलता रहता है। औपनिवेशिकता सें ग्रस्त सांस्कृतिक पक्षों के लिए मातृभाषा की आवष्यकता है ही नहीं। वे अपने लिए वैसी ही भाशा चुनेंगे जो उनके क्लास को प्रतिनिधित्व दे। इसी देश में कई जगह बच्चे मातृभाषा बालते हुए दंड पाते है तो इसको समझना चाहिए। शिक्षा का मूल है वह सौंदर्य बोध जो हमारी लोक कथाओं, हमारे सपनों, विज्ञान, हमारे भविष्य की कामना में छिपा है। उसका सौदर्य हमारी धरती की गंध से उपजा होता है। अन्य भाषाओं को अपनाने, उनमे अभिव्यक्ति करने मे कोई बुराई नहीं। न ही उनमें ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक विज्ञान सीखनें व अर्जित करने में कोई संकोच होना चाहिए। मूल यह है कि जो ताकतें मातृभाषा को रचानात्मक से हीन करने व हीनतर करने को सक्रिय रही है उन्हें पहचाननें की आवष्यकता है। हमारी अस्मिता, साहित्य, सजृनात्मक का सर्वोच्च वैभव मातृभाषा में ही संभव है। वह असीम है। कल्पना का वह छोर है। वह हमारी धरती का रंग है। मातृभाषा में पंरपरा की जीवंतता है। वह हमारे गोमुख से आती है। इसमें हमारी धूप व छंाव है। हमारी धमनी व शिराएं उससे रोमांचित होती है। वह हमार गहन आर्कषण प्रीति व मुक्ति है। उसमें हमारे लिए गहन आवेग भी है। वह हमारी पंरपरा में हमें परिष्कृत करते चलती है। मातृभाषा जीवंत अभिव्यक्ति व शिक्षा का शायद सबसे सुन्दर मध्यम है। मातृभाषा ना केवल सहज शिल्प है, अपितु सबसे अर्थपूर्ण संभावना है। अन्य भाषाओं के प्रति उदार होना मातृभाषा का सबसे उज्जवल पक्ष होना चाहिए।
(लेखक परिचय दास हिंदी-भोजपुरी आकादमी, दिल्ली के सचिव रहें हैं)
साभार- दैनिक जागरण
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