देश में अलग-अलग कुंभ चल रहे हैं। प्रयागराज में धार्मिक कुंभ जारी है। चुनावी कुंभ का बिगुल बजने ही वाला है। परीक्षा का कुंभ अभी-अभी शुरू हुआ है। तनाव इन तीनों ही कुंभ को लेकर है। कुंभ कैसा होगा, कितने लोग स्नान करेंगे, यह अलग तरह का तनाव था। चुनावी बिगुल के साथ एक अलग सा तनाव है कि किसकी सरकार बनेगी? हम जिस तीसरे कुंभ की बात कर रहे हैं, वह परीक्षा का कुंभ है। चुनाव के कारण सभी बोर्ड की परीक्षाएं इस बार जल्द शुरू हो रही हैं। अजीब सा तनाव परीक्षार्थियों के चेहरे पर है। हाईस्कूल के बच्चों में कुछ ज्यादा ही है। इस तनाव से मुक्ति का अभी तक हम कोई समाधान नहीं खोज पाए हैं। सवाल यह भी है कि परीक्षा के समय ही तनाव क्यों? बच्चों को आखिर कब इससे मुक्ति मिलेगी?
यह बात अलग है कि हम तनाव से बच नहीं सकते। तनाव से बचा भी नहीं जा सकता। काल और परिस्थिति के मुताबिक तनाव कम या ज्यादा होता रहता है। लेकिन जब बात परीक्षा की हो, तो तनाव पर चिंतन करना जरूरी हो जाता है। जब हम हाईस्कूल में होते थे, तब सोशल मीडिया का दौर नहीं था। कहीं भी कोई कोचिंग नहीं होती थी। घर में एक अलग तरह का हौआ हुआ करता था। कर्फ्यू-सा लग जाता था। बच्चे पर कई प्रतिबंध नाजिल हो जाते थे- यह मत करो, अब मत खेलो, फेल होगे क्या...आदि आदि। चूंकि हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा का पहला बड़ा पड़ाव होता था, इसलिए तनाव स्वाभाविक रूप से हावी रहता था। साठ और सत्तर के दशक के परीक्षार्थी जानते होंगे कि हाईस्कूल की परीक्षा का वातावरण क्या होता था?
तुलनात्मक दृष्टि से आज परीक्षा का उतना फोबिया नहीं है, जैसा पहले था। इसके कारण हैं। पहले फेल परीक्षार्थियों की संख्या अधिक होती थी, अब नहीं है। जो बिल्कुल ही कुछ न करे, वही फेल होता है। मार्किंग सिस्टम काफी हद तक सुधरा है। पहले 70-78 फीसदी पर बच्चा टॉपर हो जाया करता था। अब 99-100 फीसदी तक मार्किंग होने लगी है। परीक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तनों से परीक्षा का ढांचा बदल गया है। अब वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का दौर है, सवाल कम हैं, कोचिंग के बहुविकल्प खुले हैं। घर से लेकर स्कूल और सोशल मीडिया तक बच्चों को सीखने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। इतना सब होने के बावजूद तनाव क्यों है?
देश भर की परीक्षा समितियां छात्रों के भविष्य पर जब-तब मंथन करती रही हैं। मंथन के मोती किस सागर में गायब हो गए, यह कहा नहीं जा सकता। लेकिन इतना तय है कि परीक्षागत तनाव से मुक्ति तमाम सुधारवादी दृष्टिकोणों, मार्क्स मॉडुरेशन (अनुकूलन), यानी परीक्षा में छात्रों को एक समान अंक देने और ग्रेड सिस्टम लागू करने के बावजूद यथावत है। हम महसूस तो करते हैं ’कि तनाव कम हुआ है, लेकिन यह बात बच्चों पर लागू नहीं होती। विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में हम फोबिया जैसे शब्द नहीं सुनते। वहां तनाव कहां चला जाता है? सारा तनाव का केंद्र-बिंदु हाईस्कूल और इंटरमीडिएट ’की परीक्षा ही क्यों? इसके पीछे जो कारण नजर आते हैं, उनमें सबसे बड़ा यह है कि शिक्षक से लेकर अभिभावक तक मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से खुद को तैयार नहीं कर पाते। वे अपने बच्चे से ज्यादा कर दिखाने की उम्मीद करते हैं।
क्यों हम सीबीएसई या आईसीएसई की तुलना अपने राज्य के बोर्ड से करते हैं? कहीं न कहीं हमारे अंदर श्रेष्ठता और पिछड़ेपन का भाव छिपा होता है। अब राज्य स्तरीय बोर्डों ने भी अपनी स्थिति को सुधारा है। नंबर देने में उदारता बरती है। नकल के ठेके पर रोक लगाई है। परीक्षा केंद्रों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जा रहे हैं, क्योंकि हम यह मानते हैं कि नकल माफिया कभी भी, कहीं भी दस्तक दे सकते हैं।
परीक्षार्थी किसी भी बोर्ड का क्यों न हो, तनाव उसको सालता है। क्या हमारे स्कूल, पूरे साल मनोवैज्ञानिक तरीके से समाधान नहीं कर सकते। परीक्षा के लिए बच्चों को तैयार नहीं कर सकते। जरूरी यह भी है कि हम एक समान परीक्षा प्रणाली बनाएं, ताकि परीक्षार्थियों को परीक्षा के हिसाब से देखा जाए, न कि उनके जीवन-स्तर, स्कूल और परीक्षा बोर्ड के आधार पर।
लेखक सूर्यकांत द्विवेदी
स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान, मुरादाबाद
साभार हिन्दुस्तान
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