कोटा का कोचिंग कारोबार और बच्चों का मनोविज्ञान

पिछले महीने के अंत में कोटा कोचिंग संस्थानों में केवल 48 घंटों के भीतर तीन नाबालिग छात्रों ने आत्महत्या कर ली। पहला छात्र 17 साल का किशोर था। उसने बिहार के सीवान से 12वीं कक्षा पास की थी और पिछले तीन साल से कोटा में रहकर आईआईटी-जेईई की तैयारी कर रहा था। दूसरी छात्रा 17 वर्षीया दीक्षा थी, जो उत्तर प्रदेश के कुशीनगर की थी और कोटा में नीट की तैयारी कर रही थी। तीसरा राजस्थान का रहने वाला 16 वर्षीय छात्र दीपक डाडिच था, जो कोटा से आईआईटी की कोचिंग कर रहा था। आंकड़े बताते हैं कि कोटा के अलग-अलग कोचिंग केंद्रों में बीते साल यानी 2018 में 19 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। पिछले आठ वर्षों में कोटा में 118 से अधिक बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे कोटा शहर कोचिंग हब होने के साथ-साथ आत्महत्या का हब भी बन रहा है। इस स्थिति से कोटा की कोचिंग व्यवस्था पर कई तरह के सवाल उठने शुरू हो गए हैं।


कोटा में हर साल तकरीबन डेढ़ लाख नौजवान कोचिंग संस्थानों में प्रवेश लेते हैं। इस कोचिंग पर अभिभावक हर साल ढाई से तीन लाख रुपये तक खर्च करते हैं। कभी-कभी तो वे यह फीस बैंक या अन्य वित्तीय संस्थाओं से कर्ज लेकर भी भरते हैं। अक्सर ये छात्र अपने परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति को लेकर भी काफी दवाब में रहते हैं। पिछले दिनों कोटा में कोचिंग कर रहे छात्रों से संवाद करने पर पाया कि वहां के अध्यापक कोचिंग में अच्छा प्रदर्शन करने वाले प्रतियोगी छात्रों को आगे की पंक्ति में बैठाकर उन पर अधिक ध्यान देते हैं। दूसरी ओर जो प्रतियोगी छात्र कोचिंग में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, कई बार फैकल्टी उनके साथ डांट-डपट करती है। साथ ही कड़ी प्रतिस्पद्र्धा में रहने के लिए दूसरों के मुकाबले उनसे बहुत अधिक परिश्रम करने का दवाब भी बनाती हैं। कभी-कभी फैकल्टी ऐसे कमजोर बच्चों का बैच ही अलग कर देती हैं। कई बार वे ऐसे कमजोर बच्चों के अभिभावकों को केंद्र पर बुलाकर उनके बच्चे की कमियों को सबके सामने उजागर तो करते ही हैं, उन्हें वापस भेज देने की धमकी भी देते हैं। यह सब बच्चों को कई तरह के दबाव देता है।


देखने में यह भी आया है कि बहुत से अभिभावकों ने प्रवेश परीक्षाओं की तैयारियों के लिए अपने बच्चों को हाईस्कूल के बाद से ही कोटा के कॉलेजों में दाखिला दिला दिया। यानी ये बच्चे कक्षा 11 व 12 की पढ़ाई के साथ ही प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी करते हैं, ताकि उनका एक साल बच सके। इसी दोहरे दबाव के कारण प्रतियोगी छात्र जबर्दस्त भूमिका द्वंद्व में फंसे रहते हैं। असल बात यह है कि इन प्रतियोगी परीक्षाओं में कोचिंग के बावजूद सफलता का प्रतिशत लगभग 40-50 फीसदी के आस पास ही रहता है। आधे से अधिक प्रतियोगी छात्रों की असफलता उन्हें तीव्र अवसाद की ओर ले जाती है। अपने परिवार से दूर रहकर कोचिंग करने वाले ये छात्र एक अनजान और बिल्कुल नए माहौल को आत्मसात करने में भी कठिनाई महसूस करते हैं। साथ ही प्रतियोगिता की तीव्र होड़ से उपजने वाली निराशा को कम करने और ढाढ़स बधाने में अपनों से संवाद का अभाव उन्हें अपने जीवन से हारने को मजबूर करता है। प्रतियोगी परीक्षा की जद्दोजहद और उसमें विफल रहने पर हौसले और सांत्वना की कमी नाबालिगों को धीरे-धीरे अवसाद की ओर ले जा रही है। इन कोचिंग संस्थानों में बच्चों के इस मनोविज्ञान को समझने वाला कोई नहीं है।


पिछले चार दशक में कोटा में तकरीबन 50 से भी अधिक कोचिंग संस्थान अस्तित्व में आ चुके हैं। आज कोटा में इन कोचिंग संस्थानों का कुल सालाना कारोबार दो हजार करोड़ को पार कर रहा है। ये कोचिंग संस्थान आज लाखों की रेाजी-रोटी का साधन भी बने हैं। एक और खास बात यह है कि आज देश के तमाम तकनीकी विशेषज्ञ नामी-गिरामी तकनीकी संस्थानों को छोड़कर कोटा के इन संस्थानों में ज्वॉइन कर रहे हैं। कोटा में ऐसी फैकल्टी का वेतन 15 से 20 लाख रुपये सालाना है। जो कई दूसरी नौकरियों की सालाना पगार से कहीं बहुत अधिक है। लेकिन असल सवाल उन बच्चों का है, जो इस पूरी व्यवस्था में पिस रहे हैं।


(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार हिन्दुस्तान

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