शिक्षा में नया प्रयोग

शिक्षा विभाग स्कूलों में नया प्रयोग करने जा रहा है। इसके तहत अब प्रार्थना के बाद एक पीरिएड बच्चों को तनाव मुक्त रखने व जीवन मूल्यों पर आधारित क्रिया कलापों के लिए होगा। इस पहल की सराहना की जानी चाहिए। वर्तमान दौर में बच्चों को तनाव से मुक्त रखने को जरूरत है तो जीवन मूल्यों को सिखाने की आवश्यकता भी है। यह योजना सरकारी स्कूलों में ही लागू होगी। जबकि जरूरत इसे प्रदेश के सभी स्कूलों में लागू करने की है। फिर चाहे वे सरकारी हों या निजी स्कूल। इसमें कोई दो राय नही कि यदि योजना के क्रियान्वयन में संजीदगी दिखाई जाए तो नतीजे सकरात्मक ही मिलेंगे। बावजूद इसके सिस्टम को चाल को देखते हुए आशा के बीच आशंकाएं तो रहेंगी ही। लेकिन तस्वीर की गुणवत्ता को लेकर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। हालांकि सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन परिणाम कब तक दृष्टिगोचर होगा, यह कहना मुश्किल है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2018 पर गौर करें तो तथ्य चैकाते नहीं है, बल्कि चिंतन पर विवश करते है। मसलन, सरकारी स्कूलों में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले करीब आधे बच्चे दूसरी कक्षा कि किताब तक नही पढ़ पाते। आठवीं कक्षा के 20 फीसद बच्चे कक्षा दो की किताब को नहीं पढ़ सकते। कक्षा तीन के 19 फीसदी छात्र ही घटाना जानते है। पांचवी कक्षा के सिर्फ 26 फीसदी छात्र ही भाग कर पाए। आठवीं कक्षा के 27 फीसदी छात्र 10 से 99 के बीच की संख्या तक नही पहचानते। बात सिर्फ यही खत्म नहीं होती, जहां एक ओर निजी स्कूल आधुनिक शिक्षा के ओर कदम बढ़ा चुके है, वहीं राज्य के नब्बे फीसद सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर तक नहीं है। इतना ही नही नौ फीसद स्कूलों में जहां कंप्यूटर हैं भी, वहां बच्चे इसका इस्तेमाल करना नहीं जानते। ऐसे में समझा जा सकता है कि शिक्षा की गुणवत्ता की स्थिति क्या है। पुस्तकालय किसी भी स्कूल का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन हैरत देखिए करीब 15 फीसद स्कूलों में लाइब्रेरी ही नही है। वहां, करीब 58 फीसदी स्कूलों में लाइबे्ररी तो थी, लेकिन बच्चे उसका उपयोग नही कर रहें। कहने का आशय यह है कि मूलभूत सुविधाओं को जुटाए बिना गुणवत्ता परक शिक्षा कि कल्पना भी बेमानी है। विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में स्थिति और ज्यादा ही खराब है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में विभाग इस पर गौर करेगा और बदहाली की तस्वीर बदलेगा। यह नही भूलना चाहिए कि तमाम प्रयोंगो के बाद भी सरकारी स्कूलों से अभिभावकों का मोह भंग ही रहा है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत हैं।


साभार जागरण

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