कहने को जीवन का हर पल परीक्षा की घड़ी है, पर अक्सर ऐसा नहीं होता है। नेता और छात्र, दोनों की परीक्षा नियत है। पहले की पांच साल के अंतराल पर, दूसरे की सालाना। जरूरी नहीं है कि परीक्षा में ईमानदारी ही बरती जाए। जहां कुछ छात्र नकल पर निर्भर हैं, वहीं जनसेवक झूठे वादों पर। कई तो अपने क्षेत्र में इतना कम नजर आते हैं कि उन्हें कोई पहचानता तक नहीं है। कई विद्यार्थी भी उनसे कम नहीं हैं। वह अपनी पाठ्य-पुस्तक पर पहली बार, नकल के पुण्य कर्म के दौरान नजर डालते हैं। उनकी कोशिश थी कि मुन्ना भाई स्टाइल में किराए का छात्र उनकी परीक्षा पुस्तिका को कृतार्थ करे, पर बुरा हो आधार का। उसके कारण वह असफल रहे। हर नकलची का लक्ष्य कामयाबी है। लिहाजा, छात्र भी विवश हैं, कभी शौचालय में नकल करने को, तो कभी परीक्षा-स्थल पर।
नकल को नैतिक नजरिए से आंकना अनुचित है। ऐसे भी भौतिकता की लोकप्रियता के आगे सिद्धांतों के दिन कब के लद चुके हैं। भविष्य में इस बारे में जुबानी जमा खर्च करने वाले भी शायद ही मिलें। समाज में कुछ ऐसे भी हैं, जो चहेते नायक-नायिकाओं के कपड़ों से लेकर उनकी हेयर-स्टाइल तक की नकल करते हैं। अपने-अपने सुख के छोटे-बड़े साधन हैं। कुछ पैसे में सुखी हैं, कुछ नकल में। इसमें गलत क्या है?
नकल से नतीजे प्रभावित होते हैं, सियासत में भी। कुछ का दावा नेहरू-गांधी की विरासत का है, कुछ का अटलजी की। जो सफल है, वह सत्ता-सुख भोगता है। इसके पूर्व तरह-तरह के मुखौटे लगाता है, कभी निर्धन कल्याण के, कभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के, कहीं जात, कभी धर्म, कभी आर्थिक उत्थान के। जो इनसे जितनों को भरमाने में समर्थ है, वही सफल है। फिर भी, कंप्यूटर भैया के युग में यह तय नहीं है कि कौन सा मुखौटा कितनों को लुभाएगा? सियासी हस्ती ऐसे ही जुबानी सॉफ्टवेयर की तलाश में जी-जान से जुटी है।
गोपाल चतुर्वेदी
साभार हिन्दुस्तान
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