हमारे कार्यालयों और संस्थानों में पद-क्रम में ऊंच-नीच की जकड़न नई नहीं है। इस जकड़न से मेरा सीधा परिचय कई साल पहले हो गया था। दरअसल, एक राज्य में परीक्षाओं में सुधार का एक प्रशंसनीय प्रस्ताव लाया गया, जिसमें महज रट्टेबाजी की जांच करने वाले सवालों की जगह अवधारणात्मक सवाल रखने की बात की गई। दो दिन की कार्यशाला का आयोजन भी तय हुआ, जिसमें विद्वान शिक्षाविदों को बुलाया गया, ताकि वे अपनी विशेषज्ञता सबसे साझा कर सकें। आयोजन से कुछ ही दिनों पहले विभाग के निदेशक को पता चला कि कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में वरिष्ठ अधिकारी व मंत्री भी आएंगे। उन्होंने आयोजन की तैयारी को दूसरी ही दिशा में मोड़ दिया। अचानक सबका ध्यान कार्यशाला के अकादमिक पहलुओं से हटकर बेमतलब के प्रोटोकॉल और विभागीय कर्मकांडों पर केंद्रित हो गया। जो समय शैक्षणिक चर्चा में लगाया जा सकता था, वह इस आयोजन की तनावपूर्ण औपचारिकताओं में निकल गया। विभाग के निदेशक महोदय को टोकने की परंपरा ही नहीं थी, क्योंकि वह ऊंचे पद पर बैठे थे, और कनिष्ठ अधिकारी या कर्मचारी उन्हें समझाने का साहस भला कैसे कर सकते थे?
एक ऐसे तंत्र में, जहां ऊंचे पदों के प्रति अर्थहीन श्रद्धा दिखाने का चलन है, ऐसे कई बेहतरीन शिक्षक हैं, जो दासता की इस संस्कृति के दमकते अपवाद हैं। मैंने इन शिक्षकों के बेहतरीन गुणों, नेतृत्व क्षमता, कल्पनाशील शिक्षण आदि के बारे में लिखा है, लेकिन आज मैं आपका ध्यान कुछ शिक्षकों में मौजूद एक और सराहनीय गुण की तरफ आकर्षित करना चाहूंगा। इसे मैं कहूंगा, ‘अधिकारियों का सामना करने का आत्म-विश्वासश्। इस गुण की जांच के लिए मेरे पास एक निजी संकेतक है- जब कोई निरीक्षक या अधिकारी स्कूलों में जाते हैं, तो ज्यादातर हेड टीचर तुरंत खड़े हो जाएंगे और अपनी कुरसी उनके बैठने के लिए खाली कर देंगे, क्योंकि यह ‘शिष्टाचारश् इस व्यवस्था की संस्कृति का हिस्सा है। अगर ऐसे दमघोंटू माहौल में मुझे ऐसे हेड टीचर मिलते हैं, जो इस संस्कृति को नहीं मानते और खुद को अपने पद से कमतर नहीं आंकते, तो मैं इसे उनके आत्म-विश्वास का, स्वतंत्र चेतना का संकेतक मानता हूं।
बेशक मैं सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र से मिसालें दे रहा हूं, लेकिन ऊंचे पदों के प्रति दासता का भाव हमारे शासन तंत्र और जीवन के हर आयाम में ऊपर से नीचे तक फैला हुआ है। अगर किसी विभाग का मुखिया महज हफ्ते भर पहले ही विभाग में आया है, फिर भी वह विभागीय मसले पर पूरे अधिकार से बोलेगा और बाकी लोग चुप रहेंगे। समय के साथ पद से मिली ताकत को दिखाने के तरीके बहुत बारीक हो गए हैं।
मैंने नौकरशाहों की अध्यक्षता में हुई बैठकों में देखा है कि मेज के ईद-गिर्द कुरसियों के दो घेरे होते हैं। एक अंदरूनी घेरा, जो बैठक की मेज से लगा होता है और एक बाहरी घेरा, जिसमें कुरसियां दीवार से लगी होती हैं। भले ही बैठक में ज्यादातर जानकारी जूनियर को देनी हो, पर उसे अपनी बात बाहरी घेरे से ही करनी होगी। बाकी सदस्य, भले ही उनको कुछ नहीं कहना हो, अंदर के घेरे में बैठे रहेंगे, क्योंकि वे वरिष्ठ हैं।
ऐसे गुलामी भरे माहौल में मुझे छोटे-छोटे जमीनी बदलाव भी उम्मीद से भर देते हैं। मुझे ऐसे गजब के शिक्षक देखने को मिले हैं, जिनमें सत्ता के सामने नहीं झुकने का नायाब गुण है। निरर्थक दासता का कीड़ा शासन तंत्र को खोखला कर देता है, पर ऐसी संस्कृति का असर शिक्षा क्षेत्र में सबसे खतरनाक होता है। अगर शिक्षा की संस्कृति में सवाल उठाने की गुंजाइश नहीं होगी, तो शिक्षक व शिक्षण संस्थान अपने विद्यार्थियों में सोचने, आजादी व ईमानदारी के साथ जीने वाले तार्किक और सामाजिक तौर पर सचेत नागरिक बनने की संभावनाएं कैसे विकसित कर सकेंगे? यही वह वजह है कि अच्छे शिक्षकों में आजादी व सच्चाई के ये चिह्न जरूरी हैं।
अक्सर देखा गया है कि अच्छा बदलाव धीमा और कठिन होता है, पर जैसे-जैसे ज्यादातर लोग अच्छे रास्ते पर चलेंगे, हमारे सार्वजनिक जीवन में गहरे पैठी पद-क्रम की ऊंच-नीच की कमजोरी घटती चली जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक एस. गिरिधर
सीओओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार हिन्दुस्तान
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