हाल ही में सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग की बहन रैंडी जकरबर्ग ने कहा कि ‘शुरुआत में फेसबुक में 50 कर्मचारी थे, पर उस वक्त (2004) टेक इंडस्ट्री में महिलाओं का शामिल होना मुश्किल था। मैं ऐसा माहौल चाहती थी, जहां महिलाओं की भागीदारी ज्यादा हो। इसलिए मैंने 2011 में फेसबुक छोड़ दिया। यह समझ से परे है कि इतने साल बाद भी इस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है।श् रैंडी की यह बात उस तथ्य की पुष्टि करती है कि आज भी विश्व भर में महिलाओं के लिए काम करने की स्थितियां सहज नहीं हैं। समाज में उनकी प्रतिभा को एक सिरे से नकारा जा रहा है। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि लड़कों की तुलना में ज्यादा लड़कियां शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, पर कोई यह जानने की कोशिश क्यों नहीं कर रहा कि वे कहां जा रही हैं या वे क्या कर रही हैं?
हार्वर्ड कैनेडी स्कूल के शोधकर्ताओं की टीम के एक शोध ‘एविडेंस फॉर पॉलिसी डिजाइन- 2016श् के मुताबिक महिलाएं या तो नौकरी स्वीकार नहीं करती हैं, या फिर पारिवारिक कारणों से छोड़ देती हैं। यह शोध उस ढांचे की ओर इशारा कर रहा है, जो यह बताता है कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर विश्व भर में महिलाओं के लिए स्थितियां एक जैसी हैं। अमेरिका में कामकाजी महिलाओं की स्थिति की चर्चा करते हुए अर्थशास्त्री सिल्विया एन हुलिट ने अपनी पुस्तक क्रिएटिंग अ लाइफरू प्रोफेशनल वुमन ऐंड द क्वेस्ट फॉर चिल्ड्रन में लिखा है कि 40 वर्ष की पेशेवर अमेरिकी महिलाओं में से 42 प्रतिशत संतानहीन थीं, लेकिन उनमें से 14 प्रतिशत ने ही यह फैसला किया था। कारण स्पष्ट था कि पारिवारिक दायित्व करियर में रुकावट न बने। यह विद्रूपता है कि हर जगह विवाहित महिलाओं, विशेषकर मां को नौकरी में तरजीह नहीं दी जाती। ब्रिटेन मानवाधिकार आयोग ने ‘डिपार्टमेंट ऑफ बिजनेस इनोवेशन ऐंड स्किल्सश् के साथ मिलकर किए गए एक शोध में यह पाया कि ब्रिटेन में काम की जगह पर हर पांचवीं गर्भवती और नई बनी मां के साथ भेदभाव किया जाता है। भारत में स्थितियां और भी गंभीर हैं। वर्ष 2017 में मातृत्व प्रसूति लाभ अधिनियम (संशोधित) लागू होने के बाद से कंपनियां महिलाओं को काम पर रखने से कतराने लगी हैं। टीमलीज सर्विसेज के मुताबिक, ‘पुराने आंकड़ों के अनुसार 2004-2005 से 2011-12, यानी सात साल में महिलाओं की निकासी की दर कुल 28 लाख रही। संशोधित मातृत्व लाभ अधिनियम के बाद एक साल में 11 से 18 लाख महिलाओं की नौकरी जाना हैरान करता है। हमें स्वीकार करना होगा कि संपूर्ण कार्य व्यवस्था लाभ-हानि के गणित पर टिकी हुई है, जिसके चलते महिलाओं को नौकरी पर रखने पर कंपनियां रुचि नहीं रखतीं, और इस तथ्य की पुष्टि आंकड़ों से भी होती है।
आज भी एक तिहाई कंपनियां ऐसी हैं, जहां स्टाफ में कोई महिला है ही नहीं, जबकि देश में 71 प्रतिशत कंपनियां ऐसी हैं, जहां महिला कर्मचारी रखी तो गई हैं, लेकिन उनकी संख्या 10 प्रतिशत से भी कम है। एक पुरुष जब नौकरी चाहता है, तो उसे किसी से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होती है, दूसरी तरफ महिलाओं और लड़कियों को काम करने, रोजगार योग्य नए कौशल सीखने के लिए अपने पिता, भाई या पति से अनुमति लेनी पड़ती है। अगर महिलाएं इस बाधा को पार कर भी लें, तब भी उन्हें पारिवारिक दायित्व को उसी तरह पूर्ण करना होता है, जिस तरह एक घरेलू महिला को। इस कारण वे निरंतर दबाव में रहती हैं। एक ओर दफ्तर में स्त्री होने के कारण उनके काम को शंका से देखा जाता है और अपनी कर्तव्यनिष्ठा को सिद्ध करने का मानसिक दबाव रहता है, वही अपने परिवार और बच्चों के प्रति दायित्वों का निर्वहन करने की चुनौती भी होती है। पिछले साल अगस्त में प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स ने कहा था कि वह अपनी बेटी के लिए अच्छी मां साबित न हो पाने के डर से जी रही हैं। यही डर हर कामकाजी महिला का है और ये परिस्थितियां तब तक नहीं बदलेंगी, जब तक महिलाओं के पारिवारिक दायित्व को घर के पुरुष सदस्यों द्वारा साझा नहीं किया जाएगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
लेखक ऋतु सारस्वत
समाजशास्त्री
साभार हिन्दुस्तान
Comments (0)