बांग्लादेश का राष्ट्रीय पुस्तक मेला शुरू हो गया है। यूं किताबों का मेला कोई नई बात नहीं है। अक्सर ऐसे मेले लगते ही रहते हैं, लेकिन बांग्लादेश में हर साल लगने वाला यह मेला किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं। इस मेले से एक अलग तरह का लगाव वहां के लोगों को है। यह उनकी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ता है, और उसकी एक खास वजह है। दरअसल, 1947 में हिन्दुस्तान के दो टुकड़े हो गए। बंगाल भी दो हिस्सों- पूर्वी और पश्चिमी में बंट गया। पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा हो गया। पाकिस्तान बनते ही कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बना दिया। नेशनल असेंबली में भी उर्दू के साथ अंग्रेजी को इस्तेमाल की जुबान बनाया गया। इस एलान के साथ ही पूर्वी बंगाल में हलचल मच गई। उनकी बांग्ला भाषा की कोई अहमियत ही नहीं रही। ठीक यहीं से एक आंदोलन जन्म लेता है। 16 फरवरी, 1956 को तो हद हो गई। अपनी भाषा के लिए ढाका यूनिवर्सिटी में छात्र, शिक्षक और वाइस चांसलर तक इकट्ठा हुए। उनकी बात सुनने की बजाय सरकार ने उन पर गोलियां चलवा दीं। तीन लोग उसमें मारे गए। उसके बाद भी यह आंदोलन रुका नहीं। यह भाषाई आंदोलन 1971 में एक नए देश बांग्लादेश में तब्दील हो जाता है। इस बार पाकिस्तान के दो टुकड़े होते हैं। एक भाषा किस तरह एक देश को बनाती है, उसकी मिसाल है बांग्लादेश। अब उस देश को बनाने में न जाने कितने लोगों ने जुल्म सहे। अपनी जानें कुर्बान कर दीं। यह किताबों का मेला एक किस्म से अपने शहीदों को याद करने का जरिया भी है। और यहीं से उसकी अहमियत का अंदाजा हो जाता है। इस मेले में दुनिया भर से प्रकाशकों को बुलाया जाता है। पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के पाठकों-प्रकाशकों का मिलन तो होता ही है। ‘दोनों बंगालोंश् के लेखक भी यहां जुटते हैं। 1972 में ढाका के बांग्ला एकेडमी परिसर में इस मेले की शुरुआत हुई थी। तभी से यह सालाना जलसा हो गया है। अपनी भाषा, अपनी किताबों को लेकर एक देश या समाज को कितना जागरूक होना चाहिए, उसकी मिसाल पेश करता है यह मेला।
द डेली ऑब्जर्वर, बांग्लादेश
साभार हिन्दुस्तान
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