काफी समय पहले अमेरिका में एक प्रमुख स्कूल द्वारा आयोजित एजुकेशन थिंकटैंक कांफ्रेंस में हिस्सा लेने के दौरान मुझे यह समझ आया था कि फिनलैंड और स्वीडन जैसे कुछ देशों को छोड़ दें, तो आम तौर पर पूर दुनिया स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता के मुद्दे से जूझ रही है। कांफ्रेस में 70 देशो के प्रतिनिधि मौजूद थे और उनमें से अधिकांश अपने देश में शिक्षा की खराब गुणवत्ता का रोना रो रहे थे। राष्ट्रपति ओबामा के नेतृत्व में चलने वाले ‘नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड’ ( कोई भी बच्चा छूटने न पाए) जैसे विशाल अभियान और ‘टीच फाॅर अमेरिका’ जैसी निजी पहल के बावजूद उस विकसित देश में भी स्कली शिक्षा की गुणवत्ता का मुद्दा बरकरार है।
पिछले तीन दशकों से अधिक समय से भारत में एक के बाद दूसरी सरकारों ने हमारे विकास के तीन स्तंभ पेश किए-बिजली, सडक और पानी। राजनीतिक आंकाक्षाओं को शिक्षा को इसके चैथे स्तंभ के रूप में स्वीकार करना चाहिए। यह तो स्कूलों में दाखिले और शिक्षा तक लोगों की पहुंच में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। साल 2001 में एनडीए सरकार ने संविधान में 86वां संशोधन करके सर्वशिक्षा अभियान शुरू करने का एक साहसी निर्णय लिया। इससे स्कूलों, कक्षा और शिक्षकों की उपलब्धता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। हमारे 98 प्रतिशत गांवों में एक किलोमिटर के दायरें में उच्च प्राथमिक स्कूल। सर्वशिक्षा अभियान शिक्षकों के विकास की अवधारणा को सामने लेकर आया और इसके लिए बजट मुहैया कराया। भारत की शिक्षा-व्यवस्था, दुनिया की सबसे बड़ी स्कूली व्यवस्था है, जो 14 लाख स्कूलों, 2.5 करोड़ बच्चों और 70 लाख शिक्षकों और बाहर से स्कूलों को सहयोग करने वाले लगभग 15 लाख शैक्षिक अध्ययनों ने बार-बार यह दिखाया है कि हमारे स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता कितनी खराब है? इसका एक उदाहरण हर साल जारी होने वाली ‘असर’ की रिपोर्ट है।
लेखक दिलीप रांजेकर
सीइओ
अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
(ये लेखक के अपने विचार है)
साभार हिन्दुस्तान
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