आम चुनाव से ठीक पहले संसद ने संविधान में 124वां संशोधन करके सरकारी नौकरियों और कॉलेज-यूनिवर्सिटियों के दाखिलों में सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में यह जुलाई 2019 से शुरू होने वाले शिक्षा-सत्र से लागू हो जाएगा। दाखिलों में 10 प्रतिशत आरक्षण अब निजी संस्थानों में भी लागू कर दिए गए हैं। इस आरक्षण का दलित, जनजाति और ओबीसी वर्गों के मौजूदा आरक्षण पर असर न पड़े, इसके लिए प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि 40 हजार कॉलेजों और 900 विश्वविद्यालयों की कुल सीटों में 25 प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी। यानी मौजूदा करीब 1.39 करोड़ सीटों में 35 लाख सीटों की बढ़ोतरी की जा रही है।
इतने कम समय में 35 लाख अतिरिक्त सीटों का प्रावधान आसान नहीं होगा। इस तर्क का एक प्रमुख आधार यह है कि 45 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 21 आईआईएम, 20 आईआईटी और एनआईटी केंद्र सरकार द्वारा पोषित संस्थान हैं। इन संस्थानों में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का सीधा नियंत्रण है, जहां पर बढ़़ाई गई 25 फीसदी सीटों पर दाखिले और कक्षाएं चलाने में ज्यादा मुश्किलें नहीं आएंगी। लेकिन गुणवत्ता पर इसका असर पड़ेगा। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने पर भी यह समस्या आई थी। हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था एक पिरामिड की तरह है, जिसमें शीर्ष पर 10 से 15 प्रतिशत कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं, जिनके पास वित्तीय साधनों की कमी नहीं है। इन संस्थानों की गुणवत्ता को भारत की एके्रडिटेशन एजेंसियां प्रमाणित कर चुकी हैं। देशी-विदेशी रैंकिंग में भी इन संस्थानों-विश्वविद्यालयों के नाम शामिल रहते हैं। असली समस्या उन कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में आएगी, जो इस पिरामिड में बीच में आते हैं। ऐेसे 351 राज्य विश्वविद्यालय हैं, जिनसे 50 से लेकर 1,000 कॉलेज तक संबद्ध होते हैं और जिन्हें एक से 10 लाख विद्यार्थियों की कक्षाओं व परीक्षाओं का संचालन करना होता है।
सबसे ज्यादा दिक्कत 35 लाख विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए जरूरी 1.75 लाख शिक्षकों को जुटाने में आएगी। लोकसभा में दी गई एक सूचना के अनुसार, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 5,606, आईआईटी में 2,802 और एनआईटी में 3,235 पद खाली हैं। यही हाल राज्य विश्वविद्यालयों का है, जहां शिक्षकों के 40 से 50 प्रतिशत पद भरे ही नहीं जाते। इनमें ऐसे हजारों तदर्थ शिक्षक मिल जाएंगे, जो नियमित वेतन के एक तिहाई या उससे भी कम पारिश्रमिक पर दसियों वर्ष काम करते रहते हैं और उनका नियमितीकरण नहीं हो पाता। समस्या यह भी है कि बढ़ाई गई 25 प्रतिशत सीटों के लिए सभी जगह एक जैसी मांग नहीं होगी। पिछले एक दशक में उच्च शिक्षा में सभी स्तरों पर सीटों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जिससे कई पाठ्यक्रमों में भरी जाने वाली सीटें कम हो रही हैं। एआईसीटीई के अंतर्गत चलने वाले 3,921 इंजीनियरिंग कॉलेजों की वर्ष 2016-17 में कुल एक करोड़, 5़5 लाख सीटों में से 51 प्रतिशत सीटें नहीं भर पाईं।
अब बात आती है कि सभी जातियों को आरक्षण देने के तुरंत राहत वाले फॉर्मूले का बेहतर विकल्प क्या है? सबसे अहम बात यह है कि देर-सबेर देश के हर युवा को एक अच्छी नौकरी दिए जाने का हक देना पड़ेगा। लेकिन इसके साथ-साथ, उन्हें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स, आईओटी, वीआर, डीप लर्निंग जैसी नई प्रौद्योगिकियों के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करना पड़ेगा। हमारे छात्रों में से बमुश्किल 20 प्रतिशत को कॉरपोरेट जगत अच्छे रोजगार के योग्य मानता है। हमें क्वालिटी शिक्षा देने वाले स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों को इनोवेशन तथा उत्कृष्ठता के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए अधिक स्वायत्तता देनी होगी। उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा पर खर्च भी ज्यादा आता है और उनकी फीस भी ज्यादा होती है। इसका समाधान है कि गरीब वर्ग के युवाओं को 100 प्रतिशत छात्रवृत्ति और ब्याज मुक्त शैक्षणिक कर्ज दिए जाएं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
हरिवंश चतुर्वेदी
डायरेक्टर, बिमटेक
साभार हिन्दुस्तान
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