वर्तमान की भागती-दौड़ती व गला काट प्रतिस्पर्धा में शिक्षा का तेजी से बाजीकरण होता जा रहा है। जिसमें लगातार सामाजिक मूल्यों का हास हो रहा है। शिक्षण संस्थानों में मात्र धनोपार्जन की शिक्षा दी जा रही है। जिसमें राष्ट्रीयता और सामाजिकता का दायरा सिमटता जा रहा है। हमारे देश के महापुरुषों ने आधुनिक भारत में जिस शिक्षा पद्धति का सपना संजोया था वो कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। उनका मानना था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए। जिसमें मनुष्य का संपूर्ण विका हो सके। लेकिन इन शिक्षण संस्थानों और विश्वविधालयों से पढ़ाई पूरी करने के पश्चात निकलने वाला युवा हताश और निराश नजर आ रहा है। यहां के सिस्टम ने शिक्षा व्यवस्था को मात्र एक नौकरी तक समेटकर रख दिया है। जो युवा अपने विधार्थी जीवन में राष्ट्र के नेतृत्व करने का सपना संजोता है वो विश्वविधालय से निकलने के बाद बाजारीकरण के इस दौर में मात्र एक छोटी सी नौकरी तलाशने में जुट रहा है। बाजारीकरण के दस दौर को बड़े और व्यापक पैमाने पर बदलाव की आवश्यकता है।
सुनील नौटियाल, देहरादून
साभार जागरण
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