जब मुझे पहली बार बताया गया कि भाषण देने मुझे डेनमार्क जाना है तब मैं सहम गई थी। फिर मेैने अंग्रेजी में स्पीच तैयार की वहां पांच हजार लोग थे। सात मिनट की स्पीच में मैने कहा कि मै खूब पढ़ना चाहती हूं और भविष्य में आर्किटेक्ट बनना चाहती हूं। वहां बोलने वाली में मैं सबसे छोटी थी। जब मैं मंच से नीचे उतरी, तब बहुत सारी महिलाओं ने मुझे शाबासी दी और कहा कि तुम्हारी वजह से और लड़कियां प्रभावित होंगी। यह वाकया इसी वर्ष मई का है जब डेनमार्क के कोपेनहेगन में वीमन डेलीवर के मौके पर मुझे बड़े बड़े लोगों के बीच बोलने का मौका मिला था।
झारखंड की राजधानी रांची से 18 किलोमीटर दूर कोइलारी इरबा गांव से मुझ जैसी एक आदिवासी लड़की का डेनमार्क तक का यह सफर आसान नहीं था। करीब छह वर्ष पूर्व फ्रैज गैसलर सर के एनजीओ युवा से जुड़ने के बाद मैने जाना कि घर से बाहर भी एक दुनिया है। वहां हमें फुटबाल खेलने का मौका मिला । धीरे धीरे फुटबाल खेलने का मौका मिला। धीरे धीरे फुटबाल ने मेरी जिंदगी बदल दी। अब रोज मेरा दिन सुबह तीन बजे शुरू होता जाता है। डेढ़ दो घंटे पढ़ाई करने के बाद मुझे अपनी सहेलियों के साथ मैदान में पहुंचना होता है। उसके बाद स्कूल और शाम को साढ़े चार बजे से छह बजे तक फटबाल की कोचिंग मेरे पिता एक श्रमिक हैं। एक दीदी की शादी हो गई है। एक और दीदी भी श्रमिक है और यदि मैं फुटबाल और युवा स्वयंसेवी संगठन से नहीं जुड़ती तो शायद मैं भी यहीं सब कर रही होती। दीदी मेरी खूब मदद करती है। वह मुझे घर का कोई काम नहीं करने देती। इसीलिए मैने भी अपनी दो छोटी बहनों को फुटबाल से जोड़ लिया है।
शुरू में तो हम फुटबाल मजे मजे से खेल रहे थे। फिर एक दिन हमें पता चला कि हमारी टीम स्पेन में हो रहे फुटबाल टूर्नामेंट में हिस्सा ले रही है। इस टूर्नामेंट में हिस्सा लेने वाली हम पहली भारतीय टीम थी। वहां कुल दस टीमों ने हिस्सा लिया था, जिसमें हम तीसरे नंबर पर आए। दुनिया ने देखा कि झारखंड की गरीब आदिवासी लड़कियांे को अगर मौका मिले तो वे आसमान छू सकती हैं। उसी दौरान पहली बार मुझे हवाई जहाज में बैठने का मौका मिला। यह तीन वर्ष पहले की बात है। जब हम स्पेन जाने की तैयारी कर रहे थे। तब हमें बर्थ सर्टिफिकेट की जरूरत पड़ी। चूंकि हम सब अपने घरों में पैदा हुई थी और हमारे पिता को ऐसे सरकारी कागजात की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई तो उन्होंने हमारे बर्थ सर्टिफिकेट नहीं बनवाए थे। पंचायत कार्यालय में जब हमने इसके लिए संपर्क किया तो हमसे घूस मांगी गई, हमें अपमानित किया गया। मुझे और मेरी एक सहेली को तो वहां के एक कर्मचारी ने चांटा तक जड़ दिया था। यहां तक कि हमसे बरामदा बुहारने के लिए कहा गया। मगर अब धीरे धीरे चीजें बदल रही हैं। पहले समाज के लोग हाफ पैंट और शर्ट में बाहर निकलकर हमारे खेलेने के विरोध में थे , लेकिन जब से उन्हें महसूस हुआ कि फुटबाल के कारण मेरी अलग पहचान बनी है, तब से लड़कियों के खलने के उतने विरोध में ये नहीं हैं। इस बदलाव के कारण ही आसपास की मुझ जैसी गरीब लडकियां फुटबाल से जुड़ने लगी हैं। वाकई फुटबाल ने मुझ जैसी आदिवासी लड़की को सपने देखना सिखाया है।
सुनीता कुमारी
साभार -हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान
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