किताबों के नवराते और विमोचन का उत्सव

दिल्ली में पुस्तक मेला सजा, तो कवि ने कहा किताबों के नवराते शुरू हुए। वैसे यह पठन-पाठन का कम, विमोचन का उत्सव अधिक है। जैसे शारदीय नवरात्र में उपवास का जतन जरा कम और सात्विक मिष्ठान आदि का चलन खूब दिखता है। चारों ओर किताबों की मुंह दिखाई इस प्रकार हो रही है कि सर्टिफाइड विमोचक इस रस्म की अदायगी करते-करते हांफ उठे हैं। किताबों की उठाई-दिखाई वाली दौड़ हर साल इसी तरह होती है। सुनाम धन्य आलोचक लेखक के बगलगीर हो बड़ी शाइस्तगी से मुस्कराते हुए फोटो खिंचवाते हैं। हाथों में किताब दबोचकर पुस्तक के पन्ने सोशल मीडिया पर लहराना कुछ ऐसा ही है, जैसे कदीमी समय में आखेटक द्वारा अपने शिकार कौशल की तस्वीरों को घर की बैठक में सजा देना।


मेला-मंडप के बाहर दांत किटकिटाने लायक ठंड है, मगर उसके भीतर का टेंप्रेचर जरा गुनगुना है। पाठक के सामने संशय यह है कि वह पॉकेट-फ्रेंडली किताब जुगाड़े या इन किताबों की वजह से धराशाई किए गए दरख्तों के हक में आवाज उठाए? इस उत्सवी माहौल में वैसे तो करने लायक तमाम तरह के काम हैं, मगर सुस्ताने के लिए उपयुक्त जगह का बड़ा अभाव है। कोई खड़ा-खड़ा कब तक किताबों को निहारे? एक लेखक टाइप सज्जन ने जब एक टिपिकल चिंतक के सामने आराम तलबी का प्रश्न रखा, तो वह बोल उठा- लेखक के पास कल्पनाशीलता होती है, वह अपना कम्फर्ट जोन हर हाल में ढूंढ़ लेता है।


मेला स्थल के नजदीक कंक्रीट का जंगल उग रहा है। कोई अफवाह उड़ा रहा है कि जब यह गोलाकार इमारत मुकम्मल हो जाएगी, तो उसमें किताबों के लिए नो-एंट्री का बोर्ड लटका दिया जाएगा। यहां के कॉन्क्लेव में कमर्शियल सपनों की तिजारत होगी। तब किताबें पटरियों पर बिका करेंगी। फिलवक्त जब तक मेला है, किताबों का बोझा ढोने वाले कुपोषित मजदूर बच्चों के लिए भी दो टाइम रोटी का इंतजाम है। किताबें हैं, तो ‘सेल्फियांश हैं।


 


निर्मल गुप्त


साभार हिन्दुस्तान

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