उत्तराखण्ड के लिए उच्च शिक्षा की गुणवत्ता हमेशा से चुनौतीपूर्ण रही है। सरकारों ने सुधार के लिए तमाम कदम उठाए। मसलन छात्रसंघ चुनाव के लिए लिंगदोह समिति की सिफारिशों में संशोधन का कदम उठाया गया। फीस को लेकर मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए अंब्रेला एक्ट पर मंथन चल रहा है। सरकार ने डिग्री काॅलेजों में 877 राज्य लोक सेवा आयोग से चयनित नियमित शिक्षक देने की पहल की है। विश्वविधालय परिसरों को वाई-फाई सुविधा से लैसे किया गया है। बावजूद इसके हालात में ज्यादा बदलाव आया हो, ऐसा नही लगता। आखिर क्या वजह है कि 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मेधावी छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे शहरों की और रुख कर रहें है। बात चाहे तकनीकि शिक्षा की हो या एकडेमिक, उत्तराखण्ड के काॅलेज अथवा विश्वविधालय उनकी प्राथमिकता में शामिल नहीं हो पाते। रविवार को देहरादून में आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ने कहा कि पर्वतीय क्षेत्रों में ढाई एकड़ जमीन में विश्वविधालय स्थािपित किए जाएंगे। सरकार के यह फैसला स्वागत योग्य कदम है। यह इसलिए भी जरूरी है कि विषम भौगोलिक संरचना के कारण एक स्ािान या ज्यादा भूमि मिलना पर्वतीय क्षेत्रों में संभव नहीं है। ऐसे में सरकार के इस कदम से विश्वविधालय का अहम सवाल अब भी है। पिछले अनुभव भी बताते है कि विश्वविधालय और काॅलेज खोलने भर से काम नहीं चलने वाला। ज्यादा जरूरी है शिक्षकों की नियुक्ति के साथ ही आधारभूत सुविधाओं का विकास। राज्य बनने के बाद की स्थिति पर गौर करें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। बीते 18 वर्षो में प्रदेश में 25 से अधिक विश्वविधालयों, 100 सरकारी डिग्री काॅलेजों, 16 सहायता प्राप्त डिग्री काॅलेजों, और 292 निजी काॅलेजों की स्थापना की गई। इनमें 23 हजार से अधिक विधार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहें है। प्रदेश में उच्च शिक्षा का नामांकन अनुपात 24 फीसद है। यह राष्ट्रीय स्तर से नौ फीसद ज्यादा है। तस्वीर का दूसरा पहलू मायूस करने वाला रहा है। ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि सियासी समीकरणों को साधने के लिए सरकारें ताबड़तोड़ काॅलेज खोलने की घोषणा करती है। विषयों को पढ़ाने के लिए फेकल्टी तक नही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार विश्वविधालयों की स्ािापना के साथ इस ओर भी फोकस करेगी।
साभार जागरण
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