शिक्षकों की हड़ताल ने खोली तंत्र की पोल



प्रदेश में शिक्षकों की हड़ताल के सामने सरकारी मशीनरी के ढुलमुल रवैये की पोल आखिरकार खुल ही गई। एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट को हड़ताली शिक्षकों को काम पर लौटने के आदेश देने पड़े। हाईाकेर्ट का आदेश मिला तो सरकार और शिक्षा महकमा भी खासा सक्रिय हो गया और काम नही ंतो वेतन नहीं का फरमान भी जारी कर दिया गया। विधानसभा चुनाव नजदीक देख अक्सर होता है , प्रदेश में वहीं दोहराया जा रहा है। शिक्षक हो या कर्मचारी उनके संघों में सरकार पर दबाव डालकर मांगों को मनवाने की होड़ लगी हुई है। यह दीगर बात है कि जोर आजमाइश के फेर में सबसे बड़ा नुकसान सरकारी विद्यालयों के लाखों छात्र छात्राओं का हो रहा है। राज्य गठन के बाद से ही सरकारें शिक्षा के लिए ठोस, साफ सुथरी और पारदर्शी नीति लागू नहीं कर पाई हैं। तत्कालिक और तदर्थ लाभ के लिए शिक्षा की जिस नीति पर अमल किया जा रहा है , उसमें बेरोजगारों को रोजगार , शिक्ष्कों को दी जाने वाली सुविधाएं , विद्यालय भवनों के निर्माण की ठेकेदारी लालसा और नफा नुकसान की सियासत है, लेकिन इस नीति के केन्द्र में छात्र नहीं हैं। नतीजतन सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा दिनोदिन बढ़ रही है। दुर्गम क्षेत्रों में मौजूद सरकारी विद्यालयों में भी छात्र छात्राओं की संख्या घट रही है। आर्थिक अभाव में जीवन यापन करने वाले परिवार बच्चों की बेहतर पढ़ाई की आस में उन्हें सरकारी विद्यालयों के बजाए नजदीकी निजी विद्यालयों में भेजना ज्यादा मुनासिब समझ रहे हैं। सबसे बड़ी बुनियादी जरूरत शिक्षा की व्यवस्थाओं के दुरावस्था की ओर जाने और सरकारी तंत्र के घुटने टेकने के हालात कम से कम राज्य की शैक्षिक दशा दिशा के बेहतर भविष्य के संकेत तो नहीं हैं। उच्चतर वेतन और अधिक सुविधाओं की मांगें जायज हों तो भी शिक्षा के अधिकार पर बुरा असर न पड़े। लेकिन जब सरकार के स्तर से ही दायित्व बोध के बजाय तुष्टिकरण के संकेत मिल रहे हों तो शिक्षा के हाशिए पर होने का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं हैं। शिक्षा की गुणवत्ता पर इन दिनों अधिक सुविधाओं को पाने की छटपटाहट , और उसके चलते नए और पुराने बीआरपी-सीआरपी की तैनाती का विवाद , शैक्षिक संवर्ग बनाम प्रशासनिक संवर्ग, प्रधानाचार्य बनाम शिक्षा अधिकारी, राजकीयकरण के बावजूद एक ही परिसर में संचालित होने वाले विद्यालयों के एकीकरण में बाधा समेत तमाम विवाद लंबे अरसे से सिर उठा रहे हैं। ऐसे में सरकार की रूचि दायित्व बोध की हो तो बेहतर नतीजों की आस बेमायने ही है।  
साभार- दैनिक जागरण

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