कुछ वर्ष पहले मुझे एक सरकारी अस्पताल में जाना पड़ा, क्योंकि मेरा बेटा एक दुर्घटना में घायल हो गया था और पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने के लिए उसे बेंगलुरु के एक सरकारी अस्पताल में भेज दिया। वहां कोई भी प्रशिक्षित डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं था। गंदगी और कचरा हर तरफ फैला हुआ था। ड्यूटी पर तैनात प्रशिक्षु डॉक्टर ने बाहर दुकान से पट्टी और टांके लगाने के लिए धागा लाने को कहा, क्योंकि ये दोनों चीजें वहां उपलब्ध नहीं थीं। इस बीच डॉक्टर ने एक गंदी टे्र और पुराने धागे से मेरे बेटे के निचले होंठ में टांके लगाने की तैयारी कर ली। पर मेरे बेटे ने टांके लगवाने से इनकार कर दिया। मैं कई सरकारी दफ्तरों की ऐसी अव्यवस्थाएं देख चुका हूं। वहां नागरिकों को वे बुनियादी सेवाएं भी नहीं मिलतीं, जिनकी उनसे उम्मीद की जाती है।
कई अध्ययनों ने यह बताया है कि सरकारी स्कूलों में सीखने का स्तर निजी स्कूलों से औसतन कुछ बेहतर ही होता है।
इसकी तुलना एक औसत सरकारी स्कूल से करें। चाहें, तो देश के दूरस्थ इलाकों में मौजूद कुछ सरकारी स्कूलों से भी इसकी तुलना कर सकते हैं। 98 प्रतिशत से अधिक हमारे गांवों में जो स्कूल भवन है- वह उस गांव के बेहतर भवनों में से एक है। ज्यादातर स्कूलों का अच्छी तरह रंग-रोगन हुआ है और उनमें सबसे ऊपर लेटी हुई एक खुशनुमा पेंसिल बनाई गई है। ज्यादातर स्कूलों में खेल का एक मैदान है, पीने के पानी की व्यवस्था है, लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय हैं, विज्ञान किट है, खेल के सामान हैं और संगीत के साज भी। लगभग सभी स्कूलों में बच्चों के लिए प्रतिदिन ताजा पकाया हुआ अच्छा खाना दिया जाता है। स्कूल इतने उदार हैं कि वे मध्याह्न भोजन के लिए छात्रों के छोटे भाई-बहनों को लाने की अनुमति भी दे देते हैं।
सरकारी स्कूलों के खिलाफ सबसे अधिक लगाए जाने वाले आरोप हैं- शिक्षक स्कूल नहीं आते या पढ़ाते नहीं, सरकारी स्कूलों के बच्चे सीखते नहीं, सरकार सार्वजनिक शिक्षा पर बहुत कम धन खर्च करती है। मगर जमीनी स्तर पर सच्चाई कुछ और है। 80 प्रतिशत से भी अधिक स्कूलों में कम से कम दो शिक्षक नियमित रूप से स्कूल आते हैं और बच्चों के साथ कुछ सार्थक काम करने का प्रयास करते हैं। बहुत से शिक्षक खराब सार्वजनिक परिवहन के बावजूद स्कूल आने के लिए हर रोज अनेक किलोमीटर की यात्रा करते हैं। सरकारी स्कूलों के लोग आमतौर पर वहां आने वालों का स्वागत करते हैं। पिछले 15 साल में किए गए शोध बार-बार यह तथ्य सामने लाते रहे हैं कि सरकारी स्कूलों में छात्रों के सीखने का स्तर उन तथाकथित ‘स्मार्ट निजी स्कूलोंश् से कमतर नहीं हैं, जो मुख्यतरू ‘व्यावसायिक हितश् के लिए कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि औसत सरकारी स्कूल में सीखने का स्तर औसत निजी स्कूल से थोड़ा बेहतर ही होता है, जबकि इनमें ज्यादातर ऐसे बच्चे होते हैं, जो सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे वंचित परिवारों से आते हैं। सरकारी स्कूलों में हर बच्चे पर होने वाला खर्च निजी स्कूलों में होने वाले खर्च का अंश मात्र होता है। ऐसी स्थितियों में सरकारी स्कूल हर बच्चे में जो ‘मूल्यश् जोड़ते हैं, वह उन स्कूलों से उल्लेखनीय रूप से उच्चतर होता है, जहां ‘अच्छे घरोंश् के बच्चे पढ़ते हैं। समाज अक्सर इस ‘समाहित मूल्यश् की उपेक्षा करता है। जैसे ही माता-पिता कुछ फीस भरने लायक हो जाते हैं, तो वे पहला काम अपने बच्चे का प्रवेश किसी निजी स्कूल में करवाने का करते हैं।
बेशक, सरकारी स्कूलों की असफलता के कई कारण हैं। आजादी के बाद जिन राजनेताओं ने देश पर शासन किया, उन्हेें एक अच्छी शिक्षा के लिए राष्ट्रीय नीति (1986) लाने में 39 साल लग गए। सर्वशिक्षा अभियान में 45 साल लग गए और हमारे स्कूलों के लिए आवश्यक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (राष्ट्रीय पाठ्यचर्या फ्रेमवर्क) को परिभाषित करने में 50 साल लग गए। हमारे नेतृत्व ने शिक्षा को टुकड़ों में देखा है, जिसने हमें बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है। सभी सरकारें जनता की एक विशाल आबादी को शिक्षित करने के लिए जरूरी बजट उपलब्ध कराने में असफल रही हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे स्कूलों ने हमें फेल कर दिया, बल्कि राजनीतिक और नौकरशाही व्यवस्था ने हमारे स्कूलों को फेल कर दिया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं).
लेखक दिलीप रंजेकर
सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार हिन्दुस्तान
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