शिक्षा की संस्था सभ्य समाज की एक जरूरी संख्या का स्थान ले चुकी है। अतः शिक्षा किसलिए हो या उसका क्या उद्देश्य हो, यह प्रश्न समाज और व्यक्ति के जीवन के संदर्भ में उठना स्वाभाविक है। देश में आजकल यह बात आम होने लगी है कि हमारी शिक्षा अपने परिवेश-संस्कृति से कटती जा रही है। जिस समाज या संस्कृति से शिक्षा का पोषण होता है और जिसके लिए वह प्रासंगिक होनी चाहिए वह एक दुःस्वप्न सरीखा होती जा रही है। इन सबके बीच जो पढ़-लिख जाता है वह मानो एक बड़ी यांत्रिक व्यवस्था के उपकरण के रूप् में ढ़ल जाता है। प्रतिस्पर्धा की दुनिया में उसका उद्देश्य सफलता, उपलब्धि और भौतिक प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ने तक सीमित हो रहा है।इस तरह यह विधार्थी के मानस को संकुचित बनाने का काम पर रही है। एक ओर तो विश्वस्तरीय शिक्षा देने का संकल्प लिया जाता है तो दूसरी ओर सर्वत्र एक ही ढर्रे पर पढ़ाई करने की कवायद भी जारी है। आज प्रचलित शिक्षा मनुष्य को स्वचालित रोबोट बनाने पर जोर देती है। इस शिक्षा से निकलने वाले होनहार युवाओं की स्थिति विचित्र हो रही है। जिस सीढी के सहारे चढ़कर वे ऊपर पहुंचते है उस सीढ़ी से बेझिझक अलग हो जाते है। वे उस भूमि से अलग हो जाते है जिसने जीवन दिया। यह शिक्षा सांस्कृतिक विचार, विश्वास, सहयोग, सहनशीलता आदि की कीमत पर दी जा रही है। लिहाजा उनमें सामाजिक सृजानात्मकता और निजी लाभ के आगे किसी तरह की सामजिक सकरात्मकता विरल होती जा रही है।
यदि हम स्कूली शिक्षा को लें जो शिक्षा का प्रवेश द्वार है तो पाते है कि भारत मे पहले कई तरह के विधालय चलते रहे है। यहां प्राचीन काल में गुरुकुल, पाठशाला और मदरसा मौजूद थे। यहां आने के बाद अंग्रेज अधिकारियों ने प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जो रपटें लिखी वे आश्चर्यजनक रूप से इसकी अच्छी स्थिति प्रदर्शित करती है। उनकी नजरों में तब यहां की शिक्षा संस्कृति से जुडी थी। बाद के दिनों मे कठोरी शिक्षा आयोग द्वारा संस्कृति पर ध्यान देने की बात की गई थी। उसने इस बात पर जोर दिया था कि कार्यक्षेत्र, शिक्षा, घर, परिवार, व्यक्ति और समाज के बीच कोई द्वंद्व नही होना चाहिए। महात्मा गांधी ने भी नई तालीम का विचार दिया था जिसमें शरीर, हाथ, बुद्धि सबका संतुलन होता है और इसके लिए उन्होंने स्थानीय संसाधन के उपयोग का सुझाव दिया था। इसमें निरी बौद्धिकता पर अतिरिक्त बल न देकर शरीर, मन, आत्मा सब पर ध्यान देने की बात कही गई। इसके अंतर्गत स्वावलंबन, देशभक्ति, आत्मा-संपन्नता और संयम जैसे जीवन मूल्यों पर बल देना प्रस्तावित है। प्राथमिक शिक्षा से मोहभंग के साथ कई विकल्पों का काम शुरू हुआ। गुरुदेव रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन के पास श्रीनिकेतन बनाया था। रुक्मिणरी देवी अरुंडेल, एनी बेसेंट और जे कृष्णमूर्ति ने भी अलग-अलग प्रयास किए। इन सब प्रयासों में जीवन कौशल और कला पर बल दिया गया ताकि छात्रों के आस-पास की दुनिया से जुड़ने का भी अवसर मिले। उनका मानना था कि समग्र व्यक्तित्व के विकास के लिए प्राचीन और नए हुनर भी अपनी जो संस्कृति विशिष्ट होते है।
शिक्षा के मूल्य की अभिव्यक्ति मूर्त और अमूर्त, दोनों माध्यमों से होती है। समज और समुदाय व्यक्ति से ऊपर होते है। भारत की समृद्ध वचिक, परंपरा बड़ी प्राचीन है। आज जो शिक्षा ( मस्तिष्क!) विदेश से लाकर देश में प्रत्यारोपति की जार ही हैं वह एक हद तक भारतीय मूल्यों सांस्कृतिक विपन्नता की भरपाई नहीं हो सकती। नैतिक मूल्यों का अभाव, तनाव, द्वंद्व, हिंसा और असहनशीलता तो किसी भी तरफ ग्राह्म नहीं है। मनुष्यता के विकास के लिए संस्कृति आधारित शिक्ष के अतिरिक्त और कोई साधन उपलब्ध नहीं है। भारतीय संस्कृति की दृष्टि में अच्छी दुनिया वह है जिसमें बहुलता, पारस्परिकता और सह अस्तित्व हों, पर हम इसे छोड़कर अंग्रेेजी पर अधिकार करने चले और उसी ने हम पर अधिकार जमा लिया। सांस्कृतिक क्षति के चलते हम बोलने और सोचने को लेकर विभाजित व्यक्तित्व वाले होते जा रहे हैं। अर्थात बाहर से ग्रहण किया या लिया, पर अंदर जो मौजूद है वह गया भी नही। अब द्वंद्व और दुविधा के साथ किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे है। औपनिवेशिक शक्तियों की भाषा हमारा माध्यम हो गई है। धर्म, भाषा, पशु, पक्षी, प्रतिमा, पुरातत्व कला, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि के क्षेत्रों में भारतीय अपनी शिक्षा से अपरिचत होते जा रहे है।
हमें अपनी संस्कृति की भी चिंता नहीं है। विधालयों में प्रक्रिया के स्तर पर अध्यापक और सहपाठी के साथ सहयोग कैसे स्थापित किया जाए वह आज की कठिन चुनौती बन गई है। आज शिक्षा एक खास तरह का रिश्ता नहीं बन रहा है। विधालयों के साथ समाज का रिश्ता नहीं बन रहा हैं और जन भागीदारी बहुत सीमित हो गई है। आधुनिकता और यहां की प्राचीन ज्ञान परंपरा के बीच आज तक सामंजस्य नहीं बन रही है। सूचना प्रौधोगिकी के क्षेत्र में प्रगति तो हो रही है, पर इन सबके बीच इंसान खो गया है। आज बुद्ध, महावीर, ईसा, महात्मा गांधी के विचार कहां है? हम किधर जा रहे है? आज यह विचारणीय सवाल है। हमें भौतिकता के मिथक तोडने होंगे। मशीनीकरण की होड़ से बचना होगा। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्थित सामाजिक चेतना, ब्रह्मांडीय चेतना ही आधुनिक आत्मकेंद्रित उपभोक्तावाद की समस्या का जगह प्रकृति और समाज के बीच संबंध स्थापित करने से ही स्वराज, स्वदेशी और सर्वोदय के विचार जीवित होंगे। शांति की संस्कृति का विकास नैतिक अनुशासन से ही आ सकेगा। और तभी बच्चे में श्रेष्ठ का अविष्कार करने की ललक और स्वावलंबी जीवन व्यतीत करने की इच्छा पनप सकेगी। तभी पूर्ण सामाजिक विकास और धार्मिक समानता भी आ पाएगी।
दरअसल विचारों का विकास और उनकी समाज में उपस्थिति के कई आधार होते है। प्रायः माना जाता है कि आधुनिकता का विचार पश्चिम से भारत की ओर आगे बढ़ा। यहां की अपनी आधुनिकता को औपनिवेश्किा आधुनिकता ने नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया। यहां एक तरह की संकर या मिश्रित आधुनिकता का आरंभ हुआ। वहां की आधुनिकता पश्चिमी आधुनिकता से जटिल रूप में जुडी और फिर शिक्षा का सांस्कृतिक विमर्श भी बाधित हुआ। जाहिर है शिक्षा का प्रयोजन भविष्य के लिए तैयारी और नियोजन से जुड़ा है। इसलिए इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे मे जरूरी है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में समय के साथ आ गई इन खामियों को दूर किया जाए।
लेखक गिरीश्वर मिश्र
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविधालय के कुलपति है)
साभार जागरण
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