अमूल्य बचपन को बोझिल मत बनाओ

डाॅ. विशेष गुप्ता ने अपने आलेख और आगे बढ़े बचपन बचाने की पहल द्वारा भारतीय बच्चों के जिस चहकते हुए बचपन को बचाने की बात की है, उसे इस देश के शिक्षा उधामियों ने अपने मुनाफे के लिए भारी बस्ते के बोझ तले दफन कर दिया है। यह कैसी विडंबना है कि एक 6-7 साल के बच्चे की पीठ पर 3.4 किलो का स्कूली बस्ता होता है। बावजूद इसके अपने पाल्य की बेहतर शिक्षा के लिए आतुर अभिभावकगण अपने बच्चे के साथ हो रहे इस अन्याय के प्रति मौन धारण किए हुए है। न्यायालय, मानवधिकार आयोग और इस देश के शिक्षाविदों ने भारत के स्कूली बच्चों के साथ हो रही इस नाइंसाफी के प्रति समय-समय पर अगाह भी किया है, लेकिन अंग्रेजी माध्यम की बनावटी शिक्षा की ओट में देश के मुनाफाखोर शिक्षा व्यापारियों ने बच्चों के मुस्कराते बचपन को, अपने मुनाफे के लिए भारी भरकम बस्ते और जी उबाऊ होमवर्क के बोझ तले बेरहमी से कुचलना जारी रखा। यह शुभ संकेत है कि वर्तमान केंद्र सरकार और प्रदेश सरकारों ने स्कूली बच्चों के साथ हो रही इस नाइंसाफी को गंभीरता से लेकर मुनाफाखोर शिक्षा व्यापारियों की इस बेजा हरकत पर लगाम कसना शुरू कर दिया है, लेकिन इस मामले में केवल सरकार की सकरात्मक पहल से काम चलने वाला नही है, अभिभावकों को भी अपने बच्चों के बचपन को बीमार होने से बचाने के लिए सरकार की इस मुहिम का जोरदार ढंग से समर्थन करना चाहिए। बस्ते का बढ़ता बोझ और अनावश्यक विषयों के होम वर्क का तनाव बच्चों के बचपन को छीन रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि बस्ते का बोझ से बच्चों की रीढ़ की हड्डी प्रभावित हो रही है तथा होमवर्क का तनाव अनेक मनोरोगों को जन्म दे रहा है। अंग्रेेजी माधम की चककीली, किंतु खोखला शिक्षा जिस तरह से बच्चों के अमूल्य बचपन को तनावग्रस्त बनाकर बोझिल बना रही है, वह अमानवीय है, जिसका हर स्तर पर विरोध होना ही चाहिए।


डाॅ. वीवी पाण्डेय, अलीगढ़
साभार जागरण

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