भारतीय संविधान के 86वें संशोधन में बताया गया है कि छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य है। मगर हकीकत यह है कि 2018 के वार्षिक बजट में भी शिक्षा व्यवस्था पर लगभग 3.8 प्रतिशत व्यय ही निर्धारित हुआ। सवा अरब की आबादी वाले इस देश में शिक्षा व्यवस्था चरमराती नजर आ रही है। आगामी चुनाव में इसे लेकर कोई एजेंडा भी नहीं दिख रहा। किसी दल का ध्यान जनता की बुनियादी सुविधाओं पर नहीं है। धर्म, जाति और संप्रदाय को चुनाव में घसीटकर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है। यह आने वाली पीढ़ी के साथ खिलवाड़ है। किसी भी देश के विकास में शिक्षा एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसकी गुणवत्ता में इजाफा बेहद जरूरी है।
लेखक नेहा कुमारी, दिल्ली विवि
साभार हिन्दुस्तान
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