प्रगति में बाधक आलस्य



किसी भी व्यक्ति की प्रगति में दूसरे लोग तो कम बाधक होते हैं अपनी प्रगति में व्यक्ति स्वयं ज्यादा बाधक होता है। व्यक्ति की प्रगति में बाधक कारणों में सबसे बड़ा बाधक आलस्य होता है, जिसके चलते असफल होने पर लोग अपने ही भाग्य को कोसते हैं। इससे निराशा और कुंठा का जन्म होता है। यदि कोई आलसी स्वभाव का व्यक्ति किसी काम में हाथ लगाता है तो प्रथमतः वह कार्य में पहले तो माहिर नहीं हो पाता और दूसरे असफल होने पर घर, परिवार और समाज से ताना भी मिलने लगता है। लोग उपहास उड़ाते हैं। ऐसेी स्थिति में व्यक्ति हीन भावना का शिकार होता है और आगे के किसी काम में हाथ लगाने के पहले उसका आत्मबल डांवाडोल होने लगता है। ज्यादातर असफल लोगों को देखा जाए तो यहीं बात सामने आती है कि अपनी सुख सुविधा और आज का काम कल पर टालने की वजह से उन्हें असफलता मिली।
    आलस्य की आदत प्रायः बचपन से ही शुरू हो जाती है। स्कूली शिक्षा के दौरान छोटे से लेकर बड़े विद्यार्थी तक कल से पढ़ाई शुरू करेंगे, बोलते हुए सुने जाते हैं। माता पिता या घर के बड़े सदस्य अभी तो बच्चा है कहकर उसकी आदत बिगाड़ते हैं और उस बच्चे के ब्ल डमें काम टालने की आदत डेरा जमा लेती है। यानि घर के बड़े सदस्यों का यह मोह भाव उसको काहिल बनाता है। अत्यंत निर्धन और असहाय परिवारों में देखने में आता है कि बच्चा घर की जिम्मेदारी के साथ अपनी पढ़ाई में भी लगा रहता है। यानि परिस्थितियों से लड़ने का बीज उसमें बचपन से पड़ जाता है। नतीजतन पूरी जिंदगी अपनी सक्रियता और कर्मठता से वह असहाय बालक उस मुकाम पर पहुंच जाता है जिसकी लोग कल्पना तक नहीं कर सकते थे। संत कबीरदास का एक दोहा काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में परले होएगी बहुरी करोगे कब। इस दोहे को आलस्य के खिलाफ महामंत्र कहा जा सकता है। जिसे केवल विद्यार्थी ही नहीं बल्कि हर स्त्री पुरूष को निरंतर याद रखना चाहिए। कोई भी दौर रहा हो, हर समय प्रतिस्पर्धा का वातावरण समाज में रहा है। मौजूदा दौर में एक एक पल में व्यापक परिवर्तन हो रहे हैं। हर पल नया कुछ करने की होड़ लगी है। यदि हम कुछ नया करना चाह रहे हैं और उसमें आज कल लगाए हुए हैं तो वह नया कार्य कोई और कर बैठेगा। ऐसी स्थिति में सिर्फ निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा।
साभार- दैनिक जागरण

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