एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में परिवर्तन समय की मांग थी, क्योंकि बीते करीब दो दशक से उसमें कोई व्यापक बदलाव नहीं हुआ और यह किसी से छिपा नहीं कि इस दौरान चिकित्सा क्षेत्र में तकनीक का गहरी पैठ चुकी हैं। इसी के साथ सरकारी स्वास्थय ढांचे से इतर निजी क्षेत्र में अपना एक अहम स्थान बना लिया है। यह स्वागतयोग्य है कि अगले सत्र से मरीजों के साथ सही तरह से पेश आने की शिक्षा दी जाएगी। इसे इसलिए आवश्यक समझा गया, क्योंकि बीते कुछ समय से मरीजों और उनके परिजनों की डाॅक्टरों एवं अस्पतालों से शिकायत बढ़ी है। कई बार तो तीमारदारों और डाॅक्टरों में मारपीट की नौबत तक आ जाती है। इसी तरह मेडिकल काॅलेजों के परिसर अथवा उनके इर्द-गिर्द वैसे झगड़े भी खूब बढ़े है जिनमे एक पक्ष जूनियर डाॅक्टर होते है। यदि इस नतीजे पर पहुंचा गया कि इसके मूल में कहीं न कहीं सदाचार का अभाव है तो इसे निराधार नहीं कहा जा सकता। मेडिकल पेशा एक विशिष्ट पेशा है। इसकी विशिष्टता और गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए। एक कुशल चिकित्सक वह जो न केवल रोग का भरोसा भी दिलाए। कई बार यह भरोसा उपचार में रामबाण की तरह काम करता है। ऐसे में एमबीबीएस छात्रों के पाठ्यक्रम में डाॅक्टरों और मरीजों के रिश्ते को भी शामिल किया जाना उचित है। बदले हुए पाठ्यक्रम में एमबीबीएस छात्रों को उपचार के दौरान रोगियों से प्रभावी संवाद के तौर-तरीकों से परिचित कराने के साथ ही उन्हें नैतिक शिक्षा हर शैक्षणिक स्तर के पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए। ध्यान रहे कि आज के युग के एक बड़ी समस्या यही है कि भावी पीढी शिक्षित तो हो रही है। लेकिन अपेशिक्षित संस्कारों से लैस नही हो पा रही है। समाज और देश के हित के लिए यह आवश्यक ही नही अनिवार्य है कि स्कूली शिक्षा से लेकर पैशेवर शिक्षा तक सब जगह नैतिक शिक्षा को विशेष महत्व दिया जाए। शिक्षित होना तभी सार्थक है जब हमारे छात्र बेहतर नागरिक भी बनें।
साभार जागरण
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