शिक्षकों के परिवार में मेरा जन्म हुआ। मां इतिहास पढ़ाती थी और पिता हिंदी के प्राध्यापक । हम भाई बहनों को उन्होंने अपने जीवन की सादगी कर्म के प्रति ईमानदारी और एक नैतिक साहस से सींचा। पढ़ाई को लेकर कभी परंपरागत तीरके इस्तेमाल नहीं किए। किस्से कहानी, नाटक , गीत, कविता, पोस्टर, आन्दोलनों के बीच हमें सबक मिलते रहे। स्कूल कालेज के अनेक शिक्षकों ने शिद्दत से सींचा। बहुत से कक्षा के भीतर सिखाते, तो अनेक खुले माहौल में। आज लगभग दो दशक के अपने अध्यापक जीवन पर नजर डालूं तो कितने बच्चों से मैने कितना कुछ सीखा है। उनके सवालों , उनकी जिज्ञासाओं ने हमेशा प्रेरित किया। आज उनमें से कई खुद शिक्षक हैं। पर समय बदला है। मानक बदले हैं, उच्च शिक्षा का स्वरूप बदला है। शिक्षा को रोजगार के साथ जोड़ पाने की संभावनाएं खत्म सी हो रही हैं। अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय में बरसों से करीब 4000 शिक्षक स्थायित्व के लिए संघर्षरत हैं जिस पर शैक्षिक ढांचे में बिना ठोस तैयारी के पाठ्यक्रमों का लागू किया जाना व हर साल बच्चों को एक नई प्रयोगशाला का हिस्सा बना देना जैसे कई कारण हैं जिनसे स्तर गिरा है। अनिश्चय, अस्थिरता , शिष्यों से बिना जुड़ाव पाठ्यक्रम पूरा करने की रस्म अदायगी ने उस पूरी जीवंत परंपरा का नाश किया है। बहरहाल, तमाम निराशाओं के बावजूद आज भी पढ़ाना मेरा व्यवसाय मात्र नहीं , मेरी रूचि है। इसलिए उन सबका शुक्रिया , जिन्होंने शिक्षा के जनतंत्र को रचने में सहयोग किया है।
साभार- दैनिक हिन्दुस्तान
Comments (0)